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अध्याय ]
अनुपम व्यक्तित्व
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विशेषता
कभी-कभी उनके कार्य को देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि यह सब प्राचार्यजी किम तरह कर पाते है। कई वर्ष पहले की बात है कि दिल्ली के एक सार्वजनिक समारोह में जो प्राचार्यजी के सान्निध्य में सम्पन्न हो रहा था, देश के एक प्रसिद्ध धनिक ने भाषण दिया। उन्होंने जीवन और धन के प्रति अपनी निस्मारता दिखाई। एक युवक उस धनिक को उस बात से प्रभावित नहीं हुआ। उसने भरी सभा में उस धनिक का विरोध किया। उस समय पास में बैठा हुमा मैं यह सोच रहा था कि यह युवक जिस तरह से उस धनिक के विरोध में भाषण कर रहा है, इसका क्या परिणाम निकलेगा, जब कि उस धनिक के ही निवास स्थान पर प्राचार्यजी उन दिनों ठहरे हुए थे और उस धनिक की अोर से ही प्रायोजित सभा की अध्यक्षता प्राचार्यजी कर रहे थे। पहले तो मुझे यह लगा कि आचार्यजी इस व्यक्ति को आगे नहीं बोलने देंगे; क्योंकि सभा में कुछ ऐमा वातावरण उस धनिक के विशेष कर्मचारियों ने उत्पन्न कर दिया था, जिससे ऐसा लगता था कि प्राचार्यजी को सभा की कार्यवाही स्थगित कर देनी पड़ेगी। किन्तु जब प्राचार्यजी ने उस व्यक्ति को सभा में विरोध होने पर भी बोलने का अवसर दिया तो मुझे यह आशंका बनी रही कि सभा जिस गति से जिस ओर जा रही है, उससे यह कम पाशा थी कि तनाव दूर होगा। अपने मालिक का एक भरी सभा में निगदर देख कर कई जिम्मेदार कर्मचारियों के नथुने फूलने लगे थे। किन्तु प्राचार्यजी ने बड़ी युक्ति के साथ उस स्थिति को सम्भाला और जो सबसे बड़ी विशेषता मुझे उम समय दिखाई दी, वह यह थी कि उन्होंने उस नवयुवक को हतोत्साह नहीं किया, बल्कि उसका समर्थन कर उम नवयुवक की बात के औचित्य का सभा पर प्रदर्शन किया। यदि कही उम नवयुवक की इतनी कट पालोचना होती तो वह समाप्त हो गया होता और राजनैतिक जीवन में कभी पागे बढ़ने का नाम ही नहीं लेता। किन्तु प्राचार्यजी की कुशलता से वह व्यक्ति भी प्राचार्यजी के सेवकों में बना रहा और उस धनिक का भी महयोग प्राचार्यजी के आन्दोलन को किसी-न-किसी रूप में प्राप्त होता रहा। ऐसे बहुत-से अवमर उनके पास बैठकर देखने का मभ अवसर मिला है, जब उन्होंने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा बड़े से बड़े संघर्ष को चटकी बजा कर टाल दिया। ग्राजकल प्राचार्यजी जिस मुधारक पग को उठा कर समाज में नव जाति का सन्देश देना चाह रहे है, वह भी विरोध के बावजूद भी उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण संकीर्णता की मीमा को छिन्न-भिन्न करके आगे बढ़ रहा है। प्राचार्यजी की माधना के ये पच्चीस वर्ष कम महत्त्व के नहीं हैं । राजस्थान की मरुभूमि में प्राचार्य जी ने ज्ञान और निर्माण की अन्तःमलिला सरस्वती का नये सिरे में अवतरण कराया है, जिससे वह झान राजस्थान की सीमा को छ कर निकट के नीर्थों में भी अपना विशेष उपकार कर रहा है।
विशेष प्रावश्यकता
उत्तरप्रदेश के एक गांव में जन्म लेने वाला मुझ-जैसा व्यक्ति प्राज यह अवश्य विचार करता है कि प्राचार्य तुलसी-जैसे अनुपम व्यक्तित्व की हजारों वर्ष तक के लिए देश को आवश्यकता है। देश के जागरण में उनके प्रयत्न में जो प्रेरणा मिलेगी, उससे देश का बहत-कुछ हित होगा। यह केवल मेरी अपनी ही धारणा नहीं है, हजारों व्यक्तियों का मुझ जैसा ही विश्वास प्राचार्यश्री तुलसी के प्रति है। समाज के लिए यदि भगवान् महावीर की अावश्यकता थी तो बुद्ध के अवतरण में भी देश ने प्रेरणा पाई थी। उसी प्रकार समय-समय पर इस पुण्य भू पर अवतरित होने वाले महापुरषो ने अपने प्रेरणास्पद कार्य में इस देश का हित-चिन्तन किया। उस हित-चिन्तन की ग्रागा और सम्भावना में प्राचार्यश्री तुलमी हमारे गमाज की उम मीमा के प्रहरी मिद्ध हार हैं, जिममे समाज का बहुत हित हो सकता है। मेरी दृष्टि में उनके प्राचार्य-काल के ये पच्चीस वर्ष कई कल्प के बराबर है। हजारों व्यक्ति इस भूमि पर जन्म लेते और मरते है। जीवन के सुम्ब-दुग्य और स्वार्थ में रह कर कोई यह भी नही जानता था कि उन्होंने स्वप्न में भी समाज पर कोई हित किया। इस प्रकार के क्षुद्र जीवन से प्रागे बढ़ कर जो हमारे देश में महामनस्वी बन कर प्रेरणा प्रदान कर सके हैं, ऐसे व्यक्तियों में प्राचार्य तुलसी हैं। इनकी देश को युगों तक प्रावश्यकता है।