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अम्माय]
अनुपम व्यक्त्वि
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हैं। उनकी यह उदार पुत्ति अपने निकट दूसरे धर्मों के लोगों को भी खीच लाने में विशेष सहायक सिद्ध हुई है। उनके आन्दोलन में जहाँ जैन धर्म के उपासक जुटे हैं, वहाँ सनातन धर्मी और अन्य मतावलम्बी बड़े स्नेह से इस प्रान्दोलन को अपना प्रान्दोलन मानते हैं। बड़े-से-बड़े कट्टर प्रार्यसमाजी जिन्होंने बहन रामय तक स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों के आधार पर जैन धर्म के सेवकों से अलग मार्ग रखा, वे भी बड़े चाव के साथ प्राचार्यजी के अणुव्रत-आन्दोलन के विशेष कार्यकर्ता बने हुए हैं। उनका यह सब प्रभाव देख कर आश्चर्य होता है कि राजस्थान के एन सामान्य परिवार में जन्म लेने वाला यह मनुष्य कितने विलक्षण व्यक्तित्व का स्वामी है जिसने वामन की तरह से अपने चरणों से भारत के कई राज्यों की भूमि नापी है । इस समय देश में एक-दो व्यक्तियों को छोड़ कर प्राचार्य तुलसी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्राचार्य विनोबा से भी अधिक पदयात्रा करके देश की स्थिति को जाना है और उसकी नब्ज देख कर यह चेष्टा की है कि किस प्रकार के प्रयत्न करने पर शान्ति प्राप्ति की जा सकती है। उनके जीवन-दर्शन में कभी विराम और विश्राम देखने का अवसर नहीं मिला । जब कभी भी उन्हें किसी अवसर पर अपना उपदेश करने देग्वा, तब उन्हें ऐमा देख पाया कि वे उस समारोह में बैठे हुए उन हजारों व्यक्तियों की भावना को पढ़ रहे हैं। उन सबका एक व्यक्ति किस प्रकार समाधान कर सकता है, यह उनकी विलक्षणता है। समारोहों में सभी लोग पूरी तरह से सुलझे हुए नहीं होते। उनमें संकीणं विचारधारा के व्यक्ति भी होते है। उनमें कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो अपने सम्प्रदाय विशेष को अन्य सभी मान्यताओं से विशेष मानते हैं। उन मब व्यक्तियों का इस प्रकार समाधान करना किमी साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। ग्रामो और कस्बों की प्रज्ञान परिधि में रहने वाले लोगों को, जिन्हें पगडंडी पर चलने का ही अभ्यास है, एक प्रशस्त राजमार्ग मे उन्हें किसी विशेष लक्ष्य पर पहुँचा देना प्राचार्य तुलसी जैसे ही सामथ्र्यवान व्यक्तियों के वश की बात है।
विरोधियों से नम्र व्यवहार
उनके जीवन की विलक्षणता ३म बान में प्रगट होती है कि वे अपने विरोधियो की शकाओं का समाधान भी बड़े अादर प्रौर प्रमपूर्ण व्यवहार में करते है । कई बार उनके उग्र और प्रचण्ड पालोचकों को मैंने देखा है कि प्राचार्यजी में मिलने के बाद उनका विरोध पानी की तरह मे दलक गया है।
प्राचार्यजी के दिल्ली आने पर मै यही ममझता था कि वे जो कुछ कार्य कर रहे हैं, वह और माधु-महात्मानों की नरह में विशेष प्रभाव का कार्य नहीं होगा। जिस तरह से सभा ममाप्त होने पर, उस सभा को सभी कार्यवाही प्रायः गभास्थल पर ही ममाप्त-सी हो जाती है, उसी तरह की धारणा मेरे मन में प्राचार्यजी के इस आन्दोलन के प्रति थी। कैसे निभाएंगे?
माजकल जहां नगर-निगम का कार्यालय है, उसके बिल्कुल ठीक सामने प्राचार्यजी की उपस्थिति में हजारों लोगो ने मर्यादित जीवन बनाने के लिए तरह-तरह की प्रेरणा व प्रतिज्ञाएं ली थी। उस समय यह मुझे नाटक-सा लगता था। मुझे ऐसी अनुभूति होती थी कि जैसे कोई कुशल अभिनेता इन मानवमात्र के लोगो को कटपुतली की तरह से नचा रहा है। मेरे मन में बराबर शंका बनी रही। इसका कारण प्रमुख रूप से यह था कि भारत की राजधानी दिल्ली में हर वर्ष इस तरह की बहुत-सी संस्थामा के निकट आने का मुझे अवसर मिला है। उन संस्थानों में बहुत-सी संस्थाए असमय में ही काल-कवलित हो गई। जो कुछ बचीं, वे आपसी दलबन्दी के कारण स्थिर नहीं रह सकी। इसलिए मैं यह सोचता था कि आज जो कुछ चल रहा है, वह सब टिकाऊ नही है। यह आन्दोलन मागे नही पनप पायेगा । तब मे बराबर अब तक मैं इस आन्दोलन को केवल दिल्ली ही में नहीं, मारे देश में गतिशील देखता हूँ। मैं यह नहीं कह सकता कि यह आन्दोलन अब किसी एक व्यक्ति का रह गया है। दिल्ली के देहातों तक मे और यहाँ तक कि झुग्गी-झोपड़ियां तक इस अान्दोलन ने अपनी जड़े जमा ली हैं। अब ऐसा कोई कारण नहीं दीखता कि जब यह मालूम दे कि यह आन्दोलन किसी एक व्यक्ति पर सीमित रह जाये। इस आन्दोलन ने सारे समाज में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया है कि सभी वों के लोग एक बार यह विचारने के लिए विवश हो उठते हैं कि आखिर इस समाज में रहने के लिए हर समय उन