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युगधर्म-उन्नायक आचार्यश्री तुलसी
डा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी०, पी-एच ० डी०
श्रमण-परम्परा में साधु और श्रावक का सयोग मणि-कंचण मंयोग है । साधु की शोभा श्रावक से है और श्रावक की साधु में । बिना श्रावक हा कोई साधु नहीं बन सकता। दूसरी ओर धावक को धर्म-साधन में, अपने नैतिक एवं आत्मिक विकास में माधु मे ही निरन्तर प्रेरणा एवं पथ-प्रदर्शन मिलता है। साधु को लेकर ही श्रावक का अधिकांश व्यवहार और धर्म-साधन चलता है । साधुओं के समीप धर्मोपदेश श्रवण करने से ही गृहस्थ की श्रावक मंज्ञा सार्थक होती है। दोनो ही एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं तथा श्रमण-संघ के अविभाज्य अंग हैं। भगवान महावीर ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप जिस चतुर्विध श्रमण-मघ का मंगठन किया था, उसके ये चारों ही अंग परस्पर में एक-दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र होते हुए भी एक दूसरे के पूरक एवं धर्म-साधन में सहयोगी होते हैं । गृहस्थ (श्रावकश्राविका) जीवन में धर्म के साथ-साथ अर्थ और काम पुरुषार्थों के साधन की भी मुख्यता होती है, जबकि त्यागी (माधसाध्वी) का जीवन धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ द्वय-माधन के लिए होता है। प्रस्तु, धर्म-पुरुषार्थ ही साध और गहस्थ के सम्बन्धों की प्रधान कड़ी है। साधवर्ग की सेवा-भक्ति, करना गृहस्थ का मुख्य दैनिक कर्तव्य है; तो गहस्थों को धर्मोपदेश देना, उनका पथ-प्रदर्शन करना, उनमें धर्मभाव की वृद्धि करना और नैतिकता का संचार करता साधुवर्ग के धर्ग का मध्य अंग है।
यो तो श्रमण-परम्परा के सभी साधु उपर्युक्त प्रकार में प्रवर्तन करते हैं, किन्तु वर्तमान में श्वेताम्बर रापथी माधु-संघ अपने नवम संघाचार्य श्री तुलमी गणी के नेतृत्व में जिस संगठन, व्यवस्था, उत्साह एवं लगन के माथ, श्रमणआचार-विचारों की प्रभावना कर रहा है, वह उन्लाघनीय है। भारत की स्वाधीनता-प्राप्ति के दो वर्ष के भीतर ही जिस मूझ-बूझ के साथ प्राचार्यश्री तुलसीगणी ने देश में नैतिकता की वृद्धि के लिए अपना अणुव्रत-पान्दोलन चलाया, उसकी प्रत्येक देश-प्रेमी एव मानवता-प्रेमी व्यक्ति प्रशंसा करेगा। गत बारह वर्षों में इस प्रणवत-अान्दोलन ने कुछ-न-कुछ प्रर्गात की ही है। किन्तु अपने उद्देश्य में वह कितना क्या सफल हुआ, यह कहना अभी कठिन है। रोमे नंतिक आन्दोलनो का प्रभाव धीरे-धीरे और देर से होता है । वह तो एक वातावरण का निर्माण-मात्र कर देते हैं और जीवन के मूल्यों को नतिकता के सिद्धान्तों पर आधारित करने में प्रेरणा देते है । यही ऐसे आन्दोलनों को सार्थकता है। श्रमणाचार्य तुलसी के मघ के सैकड़ों साधु-साध्वियों द्वारा अपने-अपने सम्पर्क में आने वाले अनगिनत गृहस्थ स्त्री-पुरुषों का नैतिक स्तर उठाने के लिए किये जाने वाले सतत प्रयत्न अवश्य ही युग की एक बड़ी मांग की पूर्ति करने में सहायक होंगे। अब से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व प्राचार्य भीखणजी ने कुछ विवेकी श्रावकों की प्रेरणा से ही अपने मम्प्रदाय में एक सुधार-क्रान्ति की, जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत श्वेताम्बर तेरापथी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। यह संघ तब मे शनैः-शनैः विकसित होता एव बल पकड़ता आ रहा है। किन्तु इस सम्प्रदाय की सीमित क्षमतामों का व्यापक एव लोक-हितकारी उद्देश्यों की सिद्धि के लिए जितना भरपुर एवं सफल उपयोग इसके वर्तमान प्राचार्य ने किया है और कर रहे हैं, वैसा किसी पूर्ववर्ती प्राचार्य ने नहीं किया। देश की नैतिकता में वृद्धि और श्रमण-संस्कृति की प्रभावना के लिए किये गए सत्प्रयत्नों के लिए यगधर्मउन्नायक प्राचार्य तुलसी गणी को उनके प्राचार्यत्व के धवल-समारोह के अवसर पर जितना भी साधुवाद दिया जाय, थोड़ा है।