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प्राचार्य भी तुलसी अभि
अान्दोलन के माध्यम से प्राचार्यश्री के सम्पर्क में प्राये, एक बार नहीं अनेक बार। सूक्ष्मता से आचार-विचारों का अध्यन किया और प्रणुव्रती बन गये। उन पर अणुव्रतों की गहरी छाप है। ग्राहक को आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब वह उनकी दुकान पर पैर धरते ही निम्नोक्त हिदायतें पढ़ता है
१. भाव सबके लिए एक है जो कि प्राइस कार्ड पर लिखे हुए है।
२. भाव में फर्क आने पर तीन दिन के दरम्यान कपड़ा वापस लेकर पूरे दाम लौटाने का नियम है ।
३. खरीद कर जाने के बाद भी मित्रगण नापसन्द कर दें तो कपड़ा वापस लेकर दाम लौटाने की सुविधा है।
ऐसा केवल लिखा ही नहीं गया है, इसे अक्षरशः क्रियान्वित किया जाता है। यही कारण है कि उनकी दुकान की प्रतिष्ठा प्रतिदिन वृद्धिंगत है। इस बार उन्होंने घाचार्यश्री की पदयात्रा में साथ रहने का कार्यक्रम बनाया। वे केवल १५ दिवस साथ में रहे, पर इस दौरान में चाचार्यश्री द्वारा प्रतिपादित तत्वों का खूब सूक्ष्मता से अध्ययन किया। प्रणुव्रतों का प्रचार तो उनका मुख्य ध्येय ही बन गया है। वे जाने लगे तो उनका जी भर आया, पर जाना जरूरीथा, अतः विवश थे। दो दिन बाद अपनी इस यात्रा की चर्चा करते हुए अपने एक मित्र को पत्र लिखा उसमें उनके मानसिक भावों की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि सारी जिन्दगी में सिर्फ ये १५ दिन ही काम के रहे हैं, बाकी सब निकम्मे जो कृपा गुरुदेव की मुझ पर इन दिनों रही, उसको जन्म-जन्मान्तर भी भूल नहीं सकता। मेरी तरफ से गुरुदेव के चरणों में प्रतिज्ञा पत्र अर्ज कर देना कि मैं तेरापंथ तत्त्व, अणुव्रत आन्दोलन, नया मोड़ व भविष्य में भापके किसी भी आदेश पर अपना सब कुछ अर्पण करने में अपने आपका अहोभाग्य समभूगा ।
आपका चन्दनमल महता
लो बाबा इसे ही स्वीकार करो
प्राचार्यप्रवर जहाँ कहीं भी जायें, अपने कार्य को गौण नहीं करते। उनका यह ध्येय रहता है कि कोई भी व्यक्ति उनके पास न तो खाली हाथ श्राये और न खाली हाथ जाये। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई अर्थ चाहिए। उसे तो बे छूते भी नहीं। जब उन्होंने मेवाड़ यात्रा के दौरान में आदिवासी क्षेत्र में प्रवेश किया तो बहुत से गरासियों (भीनों) ने उनका स्वागत किया । आचार्यश्री ने मन्द मन्द मुस्कराहते हुए पूछा- अरे भाई ! खाली हाथ ही आये हो या भेंट के लिए भी कुछ लाये हो ?
सब एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। एक भाई कुछ पैसे लेकर भागे भाया और कहने लगा-बाबा मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं । श्राप स्वीकार कीजिये ।
स्मितवदन आचार्यश्री ने कहा बस इतने ही ? इस छोटी-सी भेंट से क्या होगा ? मैं तो ऐसी भेंट चाहता हूँ जो तुम्हें सबसे अधिक प्रिय हो ।
वह बेचारा भसमंजस में पड़ गया। आखिर जब आचार्यश्री ने सारा भेद खोला तो वह प्रसन्न होकर बोलाबाबा ! और तो कोई लत नहीं है एक शराब जरूर पीता हूँ ।
भाचार्यश्री – कितनी पीते हो।
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व्यक्ति बाबा! कितनी का मत पूछिये वर्ष में पांचसौ मातसौ हजार का कुछ भी पता नहीं है।
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आचार्यश्री- भाई, शराब तो बहुत खराब है, अनेक बुराइयों की जड़ है। इसको तुम इतना प्रश्रय क्यों देते हो? जिस अर्थ को प्राप्त करने के लिए दिन-भर कड़ी मेहनत कर खून-पसीना एक करते हो, उसे यों बरबाद करो, क्या यह
उचित है ? क्या मैं तुमसे यह भेंट माँग लूँ ?
कुछ देर तो वह सोचता रहा। पाखिर पौरुष जागा, आगे आया और बोला तो बाबा! इसे ही स्वीकार करो। मैं आपके चरण छूकर कहता है कि अब इसकी ओर आंख उठा कर भी नहीं देलूंगा ।