________________
[ १०५ उड़ा चुका था। यही उसका प्रमुख धन्धा है।
अपने पार्ववर्ती गांव में प्राचार्यश्री का शुभागमन सुन कर वर्शनों को उत्कण्ठा जगी तो चल पड़ा । उपदेश सुना, अच्छा लगा। रात्रिभर चिन्तन चला । सबेरे प्राचार्यश्री उसी की ढाणी के पास से गुजरे। पैर पकड़ लिये और कहने लगाथोड़ा-सा दूध तो लेना ही पड़ेगा। भाप मेरे गुरु हैं । मैं पापको साक्षी से आज प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब से चोरी नहीं करूँगा, चाहे सौ मन सोना भी क्यों न हो, मेरे लिए हराम है। प्राचार्यप्रवर ने नियम दिलाते हुए दूध लिया तो वह हर्ष बिहल हो गया। उसके मुंह से निकले शब्द 'मैं निहाल हो गया' अब भी मेरे कानों में गनगना रहे हैं।
बाबा तो बोलता-देखता है
प्राचार्यश्री पदराडे में थे । इधर-उधर की बस्तियों के भीलों को पता लगा कि एक बड़े बाबा पाये हैं, तो करीब पचास भाई इकट्ठे होकर पाये और बाहर से ही भाचार्यश्री को देखने लगे। वे कुछ सकुचा रहे थे। सम्भवतः सोच रहे थे कि बाबा हमारे से बात करे या न करे। प्राचार्यश्री ने उन्हें देखा तो उनका परिचय पूछने लगे। प्राचार्यश्री की मृदुवाणी से वे इतने मुग्ध बने कि वहीं पर जम गये और कहने लगे-बाबा, हमें भी कुछ रास्ता बतलाइये।।
प्राचार्यश्री ने बुराइयों के बारे में कहा, जो उनके जीवन में व्याप्त थी तो एक बूढा भील खड़ा होकर कहने लगा'बाह! वाह! बाबा तो बोलता-देखता है। तत्रस्थ श्रोताओं को आश्चर्य हुआ, जब उन भीलों ने परस्पर विचार-विमर्श कर वर्षों से पलने वाली बुराइयों को तिलांजलि देते हुए शिकार, शराब और महीने में एक दिन से अधिक मांस खाने का त्याग कर दिया और यह विश्वास दिलाया कि हम हमारी जाति के अन्य व्यक्तियों को भी इन उपदेशों पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे। साहित्य और सेठ
बच्चों में अच्छे संस्कार पाएं, यह सभी को काम्य है, पर वे कसे पाएं, यह कोई नही सोचता। वे क्या करते है, कहाँ रहते हैं, क्या पढ़ते हैं, इस पर ध्यान दिये बिना इस स्थिति में परिवर्तन आ जाये, यह कम सम्भव है। इस कार्य को सम्पादित करने में अभिभावकों का आदेश-निर्देश तो मुख्य है ही, सत्साहित्य भी कम महत्त्व नहीं रखता। पर व्यापारी समाज का साहित्य मे क्या वास्ता! इन वर्षों में प्राचार्यश्री की वरद प्रेरणा पाकर जहाँ अनेक बालक व युवक इस पोर रुचि लेने लगे हैं, वहाँ अनेक प्रौढ़ भी इस ओर आकर्षित हुए हैं।
प्राचार्यप्रवर 'भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' पढ़ा रहे थे। एक भरे-पूरे परिवार वाले सेठजी आये । वे अच्छे तत्त्वज्ञ और समझदार श्रावक हैं । पुस्तक को देख कर पूछने लगे-कौनसी पुस्तक है ?
प्राचार्यश्री-'भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' । स्वामीजी का समग्र साहित्य ऐसे तीन भागो में द्विशताब्दी के अवसर पर प्रकाशित हुमा है। पढ़ा है या नहीं? घर पर तो होगा?
सेठ-नहीं, गुरुदेव । मैं पोते-स्वयं तो पढ़ ही नहीं सकता, क्या करूँ मँगा कर !
प्राचार्यश्री ने पोते शन्द को दूसरे अर्थ में प्रयुक्त करते हुए कहा-पोते, स्वयं नहीं पढ़ सकते तो क्या हुआ पोते (पौत्र) तो पढ़ सकते हैं? पर कौन ध्यान दें। हजारों रुपये के गहने व अन्य प्राडम्बर की चीजें मंगा देंगे, पर साहित्य नहीं। घर पर रहने से कहीं कोई पढ़ ले तो? कहते हैं, बच्चों में संस्कार नहीं पड़ते। कहाँ से भाये संस्कार? उन्हें अपने घर के साहित्य का ही पता नहीं है।
सेठ-गुरुदेव ! आप ठीक फरमाते हैं। ऐसी ही बात है। घर पर रहने से तो कोई पढ़ेगा ही। इस छोटी-सी घटना से उसमें साहित्य के प्रति काफी रुचि जागृत हो गई। अब वे बहुधा वाचन के समय अनुपस्थित नहीं रहते पौर साहित्य भी अपने पास रखने लगे हैं। अपना महोभाग्य समझंगा
महता जी अच्छे पढ़े-लिखे और प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कस कर मानने वाले व्यक्ति हैं । वे अणुव्रत