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जन-जन के प्रिय
मुनिश्री मांगीलालजी 'मधुकर' प्राचार्य तुलसी की यात्रा का इतिहास अणुव्रत-आन्दोलन के प्रारम्भ से होता है। यों तो प्राचार्यश्री की पद-यात्रा जीवन-भर ही चलती है, परन्तु यह यात्रा उससे कुछ भिन्न थी। पूर्ववर्ती यात्रा में स्व-साधन का ही विशेष स्थान था, पर 'इसमें 'स्व' के मागे 'पर' और जुड़ गया। इसलिए जनता की दृष्टि में इसका विशेष महत्त्व हो गया। .
इसके पीछे बारह वर्ष का लम्बा इतिहास है। प्रस्तुत निबन्ध में कुछ ऐसी घटनामों का उल्लेख करना चाहंगा, जिनसे प्राचार्यश्री तुलसी तेरापंथ के ही नहीं, बल्कि जन-जन के पाराध्य और पूज्य बन गये हैं।
प्राचार्यश्री यात्रा प्रारम्भ करने के बाद राजस्थान, बम्बई, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल तथा पंजाब आदि देश के अनेक भागों में करीव पन्द्रह-सोलह हजार मील धूम चुके है। प्रतिवर्ष भारत के ही नहीं, अपित विदेशों के भी अनेक पर्यटक यहाँ पर आते हैं। उनके सामने पथवर्ती हरे-भरे लहलहाते वेत, कलकल वाहिनी खोतस्विनियाँ, गगनचुम्बी पर्वत श्रेणियाँ, प्राकृतिक दृश्यों की बहारें और अनेक दर्शनीय स्थलों की मनोरमता का अनिर्वचनीय प्रानन्द लूटने का ही प्रमुख ध्येय होता है, परन्तु प्राचार्यश्री के लिए यह सब गौण है। वे इन सब बाहरी दृश्यों की अपेक्षा मानव के अन्तःस्थल में छिपे सौन्दर्य-दर्शन को मुख्य स्थान देते हैं । दस मील चले या पन्द्रह मील, स्थान पर पहुंचते ही बिना विश्राम स्थानीय लोगों की समस्याओं का अध्ययन कर, उचित समाधान देना उन्हें विशेष रुचिकर है । वे थोड़े समय में अधिक कार्य करना चाहते हैं, अतः कहीं एक दिन, कहीं दो दिन और कहीं-कहीं तो एक ही दिन में तीन-चार और पाँच-पाँच स्थानों पर पहुंच जाते हैं। लोग अधिक रहने के लिए प्राग्रह करते हैं; पर उनका उत्तर होता है ---जो कुछ करना है, वह इतने ममय में ही कर लो। दर्शक को आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब वे अपनी प्रभावोत्पादक शेली से अनेक विकट समस्याओं का बहुत थोड़े समय में ही समाधान दे देते हैं। मामला एक दिन में सुलझ गया
आचार्यश्री 'सेमड़' (मेवाड़) गाँव में पधारे। उन्होंने सुना उम छोटे-से गाँव में अनेक विग्रह हैं । वे भी दस-दस और पन्द्रह वर्षों से चल रहे हैं । भाई-भाई के साथ मन-मुटाव, चाचा-भतीजे, बाप-बेटे, श्वसुर-जमाई और सास-बहुओं में झगड़ा है। वे इस कलह को दूर करने के लिए कटिबद्ध हो गये। उस दिन प्राचार्यश्री के प्रतिश्याय का प्रकोप था। कण्ठ भी कुछ भारी थे, फिर भी उसकी परवाह किये बिना उस कार्य में जुट गये। एक-एक पक्ष की राम-कहानी सुनी, कोमलकठोर शिक्षाएं दी और भविष्य में क्या करना है, यह दिग्दर्शन किया। वादी-प्रतिवादियों का हृदय बदला। प्राचार्यप्रवर ने दोनों पक्षों को सोचने के लिए अवसर दिया। सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद पुनः दोनों पक्ष उपस्थित हुए और आचार्यश्री की साक्षी से परस्पर क्षमायाचना करने लगे। कल तक जो ३६ के अंक की तरह पूर्व-पश्चिम थे और जिनकी आँख ही नहीं मिलती थीं, वे आज गले मिल रहे थे। अनेक पंच व न्यायाधीश जिन मामलों को वर्षों तक नहीं सुलझा सके थे, वे एक दिन में सुलझ गये। क्या वे परिवार इस उपकार को जीवन-भर भूल सकेगे? यह धर्म स्थान है
प्राचार्यश्री के व्यक्तित्व में एक सहज आकर्षण है। वे जहाँ-कहीं भी चले जायें सहस्रों व्यक्तियों की उपस्थिति