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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य
[प्रथम
अत्यन्त कठिन कार्य है। उन्होंने पर्दा प्रथा तथा सामाजिक कुरीतियों के प्रति समाज को सजग कर नया मोड़ दिया है। जैसे प्रगतिशील युवकों को लगता है कि वही पुरानी दवाई नई बोतल में भरकर दे रहे हैं, उसी तरह परम्परावादियोंको लगता है कि साधुओं का यह क्षेत्र नहीं, यह तो श्रावकों का गृहस्थिों का काम है। उनका क्षेत्र तो धार्मिक है। वे इस झंझट में क्यों पड़ते हैं । पर प्रगतिशील तथा परम्परावादियों के सिवा एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जो प्राचीन संस्कृति में विश्वास या निष्ठा रखते हुए भी अच्छी बात जहाँ से भी प्राप्त हो, लेना या ग्रहण करना श्रेयस्कर मानता है । उन्हें ऐसा लगता है कि तुलसीजी प्राचार्य है और प्राचार्य का कार्य है, धर्म की समयोपयोगी व्याख्या करने का, सो वे कर रहे हैं।
उन्होंने केवल जैनियों के लिए ही किया है, सो बात नहीं है। वे राष्ट्रीय दृष्टि से ही नहीं, अपितु मानव-समाज की दृष्टि से ही कार्य कर रहे हैं । अणुव्रत-प्रान्दोलन उसीका परिणाम है । अणुव्रत-अान्दोलन मानव-समाज जिन जीवन-मूल्यों को भुला रहा था, उसे स्थापित करता है । मानव का प्रारम्भ से सुख-प्राप्ति का प्रयत्न रहा है । ऋषि-मुनि, संत-साधक और मार्ग-द्रष्टा तीर्थकर यह बताते आये हैं कि मनुष्य सद्गुणों को अपनाने से ही सुखी हो सकता है। सुख के भौतिक या बाह्य साधनों से वह सुखी होने का प्रयत्न करता तो है, लेकिन वे उसे सुखी नहीं बना सकते । सुखी बना जा सकता है, सद्गुणों को अपनाने से । अणुव्रत उसे सच्ची दृष्टि देता है । केवल किसी बात की जानकारी होने मात्र से काम नहीं चलता, पर जो ठीक बात हो, उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न हो, विचारों को माचार की जोड़ मिले, तभी उसका उचित फल प्राप्त होता है। अणुव्रत केवल जीवन की सही दिशा नहीं बताता, पर सही दिशा में प्रयाण करने का संकल्प करवाता है और प्रयत्नपूर्वक प्रयाण करवाता है । शुभ की प्रोर प्रयाण
भारत में सदा से जीवन-ध्येय बहुत उच्च रहा है, पर ध्येय उच्च रहने पर यदि उसका आचार संभव न रहे तो वह ध्येय जीवनोपयोगी न रह कर केवल वन्दनीय रह जाता है। पर अणुव्रत केबल उच्च ध्येय, जिसका पालन न हो सके, ऐसा करने को नहीं कहता । पर वह कहता है, उसकी जितनी पात्रता हो, जो जितना ग्रहण कर सके, उतना करे। प्रारम्भ भले ही अणु से हो, पर जो निश्चिय किया जाये, उसके पालन में दृढ़ता होनी चाहिए। इस दृष्टि से अणुव्रत शुभ की मोर प्रयाण कर दृढ़तापूर्वक उठाया हुआ पहला कदम है।।
मनोवैज्ञानिक जानते हैं कि संकल्प पूरा करने पर प्रात्म-विश्वास बढ़ता है और विकास की गति में तेजी पाती है। इसलिए प्रणवत भले ही छोटा दिखाई पड़े, लेकिन जीवन-साधना के मार्ग में महत्त्वपूर्ण कदम है। इस दृष्टि से प्राचार्यश्री तुलसीजी ने अणवत को नये रूप में समाज के सन्मुख रख कर उसके प्रचार में अपनी तथा अपने शिष्य-समुदाय और अनुयायियों की शक्ति लगाई। यह आज के जीवन के सही मूल्य भुलाये जाने वाले जमाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है। यदि इस आन्दोलन पर वे सारी शक्ति केन्द्रित कर इसे सफल कर सके तो केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय का ही नहीं, अपितु मानवजाति का बहुत बड़ा कल्याण कर सकते हैं। किन्तु हमने देखा है कि आन्दोलन को जन्म देने वाले या शुरू करने वाले जब विभिन्न प्रवृत्तियों में शक्ति को बाँट देते हैं, तब वह कार्य चलता हुआ दिखाई देने पर भी वह प्राणरहित, परम्परा से चलने वाली रूढ़ियों की तरह जड़ बन जाता है। भारत का महान् अभियान
यदि अणुव्रत-आन्दोलन को सजीव तथा सफल बनाने के उद्देश्य से प्राचार्यश्री अपना सारा ध्यान उस पर केन्द्रित कर पूरी शक्ति से इस कार्य को करेंगे तो वह भारत का महान् अभियान होगा, जो प्रशान्त संसार को शान्त करने का महान् सामर्थ्य रखता है।
हमारा तुलसीजी की शक्ति में सम्पूर्ण विश्वास है। वे इस महान् अभियान को गतिशील बनाने का प्रयास करें, जिससे प्रशान्त मानव शान्ति की ओर प्रस्थान कर सके।
हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि प्राचार्य तुलसीजी को दीर्घायु तथा स्वास्थ्य प्रदान कर, ऐसी शक्ति दे, जिससे उनके द्वारा अपने विकास के साथ-साथ समाज का अधिकाधिक कल्याण हो।