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युवा आचार्य और वृद्ध मन्त्री
मुनिश्री विनयवर्धनजी
माचार्यश्री तुलसी ने बाईस वर्ष की अल्पतम आयु में प्राचार्य-पद का भार सम्भाला। उनके मन्त्री मुनिश्री मगनलालजी उस समय लगभग उनसे तिगुनी प्रायु में थे। युवा प्राचार्य मोर वृद्ध मन्त्री का यह एक अनोखा मेल था। योग्य सेवक का मिल जाना भी स्वामी के सौभाग्य का विषय होता है। योग्य मन्त्री का मिल जाना राजा का अपना सौमाग्य है ही । मन्त्रीमनि एक तपे हुए राजसेवक थे। इससे पूर्व वे क्रमशः चार प्राचार्यों को अपनी असाधारण मेवाएं दे चुके थे । आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें मन्त्री-पद से विभूषित किया, पर इससे पूर्व भी वे अपनी कार्य-क्षमता से मंत्रीमुनि कहलाने लगे थे। उनका मन्त्रीत्व सर्वसाधारण से उदभूत हुआ और यथासमय आचार्यश्री तुलसी के द्वारा मण्डित हुआ। माचार्यश्री के शासनकाल में लगभग तेईस वर्ष की सेवाएं उन्होंने दी। उनके जीवन की उपलब्धियां अगली पीढ़ी के लिए एक खोज का विषय बन गई है। प्रत्येक उपलब्धि के पीछे उनका नीति-कौशल ही प्राधारभूत था। एक-एक करके पांच प्राचार्यों से ये सम्मानित होते रहे । यह एक विलक्षण बात थी। इसके मुख्य कारण दो थे : एक तो यह कि प्रत्येक प्राचार्य के पास समर्पित होकर रहे । अपनी योग्यता और प्रभाव का उपयोग उन्होंने उनके लिए किया। वे नितान्त निष्काम सेवी थे। सदेवापबगतो राजा भोग्यो भवति मंत्रिणां का विचार उनको छनक नहीं गया था। आचार्यश्री तुलसी जब संघ के नूतन अधिनायक बने तो उन्होंने अपना सारा कौशल चतुर्विध संघ का ध्यान उनमें केन्द्रित करने के लिए लगाया। उन्होंने प्राचार्यश्री को अन्तरंग रूप से सुझाया-आप समय-समय पर माधु-माध्वियों के बीच मझे कोई न कोई उलाहना दिया करें, इससे अन्य सभी लोग अनुशासन में चलना सीखगे। प्राचार्यवर ने ऐसे प्रयोग अनेकों बार किये भी। एक बार की घटना है-कुछ एक प्रमुख श्रावक किसी बात के लिए अनुरोध कर रहे थे। मन्त्रीमुनि ने भी उनके अनुरोध का समर्थन किया। श्रावकों ने कहा-अब तो आप फरमा ही दीजिये; मंत्रीमुनि ने भी हमारा समर्थन कर दिया है। प्राचार्यश्री ने प्रोजस्वी शब्दों में कहा-क्या मैं सब बातें मगनलालजी स्वामी के निर्देश पर ही करता हूँ। सब श्रावक सन्न रह गए। युवक प्राचार्य ने अपने वृद्ध मन्त्री को कितना प्रवगणित कर दिया। पर विशेषता तो यह थी कि मंत्रीमुनिका नूर जरा भी बिगड़ा नहीं । वे प्राचार्यों के लिए विनम्र परामर्शदाता थे । स्पष्टवादिता व सिद्धान्तवादिता का होना उनके सिर पर नहीं था। लोग उन्हें कभी-कभी 'जी हुजूर' भी बतलाते, पर प्राचार्यों के साथ बरतने की उनकी प्रपनी निश्चित नीति थी। यही कारण था कि विभिन्न नीति-प्रधान प्राचार्यों के शासनकाल में समान रूप से रहे । नाना झंझावात उनके ऊपर से गुजरे, जिनमें अनेकों के चरण डगमगा गए, पर वे अपनी नीति पर अटल रहे और उनका सुन्दर परिणाम जीवन भर उन्होंने भोगा।
वे अपने जीवन में सदैव लोकप्रिय रहे। जीवन के उत्तरार्द्ध में तो मानो वे सर्वथा प्रनालोच्य ही हो गए। इसका कारण था, विरोध का प्रतिकार उन्होंने विरोध से नहीं किया। 'मतणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्पति' की कहावत चरितार्थ हुई। प्रतिस्पर्धी भी निःसन्तान होकर समाप्त होते गए । लोकप्रियता का एक अन्य कारण था कि वे दायित्व-मुक्त रहना पसन्द करते थे। बहुत थोड़े ही काम उन्होंने अपने जिम्मे ले रखे थे। प्राचार्य ही सब काम निबटाते रहे, यह उनकी प्रवृत्ति थी। किसी को अनुगहीत कर अपना प्रभाव बढ़ाने का शौक उनमें नहीं था। उनका विश्वास था-भलाई असन्दिग्ध महीं होती, उसमें किसी की बुराई भी बहुधा फलित हो जाती है। इसलिए निलिप्तता ही व्यक्ति के लिए सुखद मार्ग है। इम विश्वास में सब लोग भले ही सहमत न हों, पर उनकी लोकप्रियता का तो यह एक प्रमुख कारण था ही।