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मध्याय ]
प्राचार्यश्री का व्यक्तित्व : एक अध्ययन
है या उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति में कला का स्फुरण सहज रूप से हमा है; क्योंकि वे सफल कलाकार जो ठहरे। अपनी प्रात्म-साधना
प्राचार्यश्री के व्यक्तित्व का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष जिमे कि मैं मानता है, उनकी अपनी प्रात्म-साधना है। प्रत्येक व्यक्तित्व अपनी दुर्बलताओं से अधिक मर्माहत होता है । यह प्राधात भी ऐसा होता है जिसका वि. कोई उपचार नहीं । व्यक्तित्व की सबसे बड़ी सफलता वह होती है, जहाँ व्यक्ति स्वयं अपने मे ही कतरा जाता है। इसका प्रभाव प्रत्येक क्रिया में कुण्ठा भरता है और अन्ततः असफलता और निराशा के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं पाता।
सामान्यतया साधना और संसार दोनों के क्षेत्र सर्वथा पृथक-पृथक् होते हैं। साधना के अभ्यास काल के लिए यह आवश्यक भी होता है । अन्यथा संसार की टेडी-मेड़ी पगडंडियों में वह कभी ही भटक जाये । किन्तु साधना की परिपक्वता में संसार उसमे अस्पृष्ट नहीं रहता है । साधक के लिए समूचा ब्रह्माण्ड साधनामय हो जाता है। वह साधना के उत्कर्ष का फल है। उसके लिए यह आवश्यक होता है कि साधक अपने क्रिया-कलापों में साधना का समारोहण कर दे। वह अपनी प्रवृत्ति और साधना के बीच विलगता न पनपने दे। प्रायः साधक वहीं फिसलता है जबकि वह साधना और प्रवृत्ति के बीच सामंजस्य नहीं रख पाता । जो इस पर विजयी बना, वह अध्यात्म की भाषा में जीवन-मुक्त बना। प्राचार्यश्री अपनी वर्तमान अवस्था में साधना की कौन-मी भूमिका पार कर रहे हैं, यह प्रश्न मम्भवतः उनके लिए नहीं है, किन्तु हमारे लिये अवश्य है जो कि बुद्धि के कठघरे में बंधे हुए हैं। वे अपने में जो कुछ बनना चाहते हैं या जो कुछ हैं, वह उनके लिए कुछ भी विशेष नहीं। क्योकि वे अपने में एक-रस है। एक-रमता में कुछ भी भिन्न नहीं रह जाता और उमी एक-रमता में वे साधना और ममार को घला-मिला देखना चाहते है । व्यक्ति और माधनाके बीच में समय की रेखाएं खिच जाय, यह उनको बिल्कुल मान्य नहीं। उनके अपने शब्दों में "विचार प्रवाहमान रहते हैं, तब तक उनमें स्वच्छता रहती है। उसका प्रवाह रुकता है, वे पंकिल बन जाते हैं। रूढिया अनावश्यक नहीं होती। व्यक्ति या समाज को जीवित रखने के लिए देश-काल के अनुरूप रूढ़ि का पालम्बन लेना होता है। यहाँ पर रूढ़िवाद नहीं है । रूढ़िवाद वह है, जो देशकाल के बदले जाने पर भी देश-काल-जनित स्थिति को न बदलने का आग्रह करे।" इसी भावना को लक्षित करते हुए कहा गया :
इस कालपुरुष की रेखा में सिमटे जीवन को उस प्रसीम की ओर बढ़ाना चाहते हो, व्यवहार जहां पर तरल रूप ले बह जाता
उस चरम सत्य को व्यक्त बनाना चाहते हो। मच तो यह है कि प्राचार्यश्री जो कुछ है, हमारे समक्ष है और जो कुछ बनना चाहते है, वह भी दृष्टि में प्रोझल नहीं है। फिर हमारे अन्तर-चक्ष या चर्म-चक्ष उन्हे कहाँ तक परखते हैं, यह अपनी-अपनी योग्यताओं पर भी अवलम्बित है।