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बध्याय |
प्राचार्यथी का व्यक्तित्व : एक अध्ययन
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इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं। किन्तु एकतंत्र में इसका सर्वोपरि स्थान है। एकतंत्र का प्रयोग वहीं असफल रहा है, जहाँ कि शास्ता के व्यवहारों पर महंता ने अपना स्थान जमा लिया। एकतंत्र की यही सबसे बड़ी दुर्बलता है और यदि वह कुशल अनुशास्ता द्वारा पाट दी जाती है तो वह समाज सम्भवतः अन्य किसी समाज से उन्नति और विकास की घुड़दौड़ में पिछड़ नहीं सकता। मुझे एक घटना याद आ रही है। एक बार की बात है कि आचार्यश्री के समक्ष एक विवादास्पद प्रसंग उपस्थित हुआ। दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष सबलता पूर्वक रखे। प्राचार्य श्री सुनते रहे और सुनते रहे किन्तु एक शब्द भी उत्तर में नहीं कहा। बात की समाप्ति पर दोनों ही पक्ष निर्णय सुनने को श्रातुर थे। पर श्राचार्यश्री ने निर्णय की अपेक्षा उसी दिन से एकासन (एक समय भोजन) करना प्रारम्भ कर दिया। एकासन का पहला दिन बीता, दूसरा दिन बीता और तीसरा दिन भी बीत गया। दोनों पक्षों के श्राग्रह पर यह निर्मम प्रहार था जो उसे सहन नहीं कर सका। उसके बन्धन ढीले पड़े और विवाद स्वयं समाहित हो गया। तब सभी ने माना कि विवाद के अन्त के लिए यह निर्णय उस निर्णय की अपेक्षा कहीं अधिक धमोध व सहज था। ऐसे एक नहीं, अनेकों अवसर शास्ता के समझ पाते हैं जबकि धनुशासन स्वयं अनुशासक का परीक्षण करना चाहता है। परीक्षण ही नहीं, कभी-कभी उसे अनुशासित भी करता है ताकि संघ को सुचारुता बनी रहे । आचार्यश्री इसमें कितने कुशल और कहाँ तक सफल रहे हैं, इसके लिए तेरापंथ संगठन का सर्वागीण विकास एक ज्वलन्त प्रमाण लिये हमारे सामने है ।
प्रत्येक चेतना का यह स्वभाव होता है कि वह अपने से भिन्न चेतना में कुछ वैशिष्ट्य खोजना चाहती है। जहाँ मे वह मिल जाता है, उसे वह सहर्षतया अपना समर्पण भी कर देती है, किन्तु समर्पण भी अपना स्थायित्व नहीं गाड़ता है, जहां उसे नित नई स्फुरणाएं और उसे संवारने वाली साज-सज्जा मिलती रहे । अन्यथा वह अस्थायी नही बन सकता। वैशिष्ट्य भी जब दूसरी चेतना को देने का उपक्रम करने लगता है तब कृत्रिमता पनपने लगती है और वह उस दुर्बलता को अवसर पाकर प्रकट कर ही देती है। सच तो यह है कि वैशिष्टय से चेतना का समर्पण जब तक स्वयं कुछ न कुछ ग्रहण करता रहेगा, तब तक ही वह निभ सकेगा । कृत्रिमता भले ही कुछ समय के लिए उसे भुलावे में रख सकती है, किन्तु समर्पण उससे प्रेरणा नही पा सकता। इस दृष्टि से भी श्रद्धेय का व्यक्तित्व उस रूप में निखर यह अपेक्षित होता है, जिसमें कि वह सबकी श्रद्धा समान रूप से पचा सके। क्षण-स्थायी भास्था को प्रतिपल भटकने का भय बना रहता है तो उसे अन्त तक निभाने में श्रद्धेय भी सफल नहीं हो सकता। यह एक ऐसा सम्बन्ध है जिसमें कि मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय का प्राधान्य होता है । यही कारण है कि तर्क उसे सिद्ध करने में सदा ही असफल रहा है। वस्तुवृत्त्या तेरापथ संगठन में शासकशासित की भावना के प्राधान्य की अपेक्षा उसमें गुरु-शिष्य भाव रहे, इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है। नेतृत्व मानन करने वालों में नेता की अनिवार्यता का भान हो, तभी शिष्यत्व का भाव उभरता है। यहां हृदय का प्राधान्य रहता है, मस्तिष्क का नहीं। यही कारण है कि एक अकिचन संगठन जिसके संचालन में अर्थ का कोई प्रश्न ही नहीं, आज दो सौ वर्षो से भी प्रभुण्ण श्रौर गतिशीलता लिये अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहा है। मैं नहीं समझता कि विश्व के इति हास में ऐसा एक भी उदाहरण मिलता हो जिसमें कि बिना किसी प्रकार के भौतिक मूल्यों के आधारित कोई भी संगठन का स्थायित्व इतने लम्बे समय तक मौर वह भी अपनी उत्तरोत्तर उज्ज्वलता और विकास को अपने में समेटे चला हो। प्रसिद्ध विचारक जैनेन्द्रजी से एक बार तेरापंथ के बारे में उनके विचार पूछे गये तो उन्होने बताया कि "जो कुछ मैं जानता हैं, उससे इस संगठन के प्रति मुझमें विस्मय का भाव होता है। कारण कि उसके केन्द्र में सत्ता नहीं है। सत्ता को अधिकार, हथियार और सम्पत्ति से सुरक्षित और समर्थ बनाया जाता है।" तो क्या तेरापंथ को एक ऐसे रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो कि सत्ता और सम्पत्ति से दूर कुछ परम तत्त्वों से ही अपनी मौलिकता संचित करता हो। यह पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं इससे सहमत हूँ। कारण कि मैं मास्तिक है। मास्तिक का मतलब में समष्टि को चित्केन्द्रित और पितु संचालित मानता हूँ। यह चित्-अस्तित्व का संसार है। मेरी श्रद्धा है कि जहां संगठन के केन्द्र में यह चित् तत्व है, वही संगठन का जीवन है और शुभ है अन्यथा संगठन में संदिग्ध का मेल होता है और उससे फिर जीवन का प्रति होने लगता है। मानव संगठन के सम्बन्ध में यह श्रद्धा आज खत्म हुई-सी जा रही है कि बिना सत्ता और सम्पदा के वह उदय में पा सकता या कायम रह सकता है।'' इस मनास्था को टूटना चाहिए और मालूम होना चाहिए कि कुछ और