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आचार्यश्री का व्यक्तित्व : एक अध्ययन
मुमिश्री रूपचन्दजी
जीवन अनन्त गुणात्मक है। उसका विकास ही व्यक्तित्व की महत्ता का आधार बनता है। महान् और साधारण; ये दोनों शब्द गुणात्मक तारतम्य ही लिये हुए हैं, जो कि व्यक्ति-व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन करते हैं । अन्यथा हम एक व्यक्ति के लिए महान् और दूसरे व्यक्ति के लिए साधारण शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते। प्राचार्यश्री महान् हैं। क्योंकि उनका व्यक्तित्व महान् है उनका व्यक्तित्व महान इसलिए है कि वे साधारण की भूमिका को विशिष्ट बनाते हुए चलते हैं। कोई भी व्यक्ति साधारण से अस्पृष्ट रह कर महान् नहीं बनता है। किन्तु वह साधारण को विशिष्ट बनने का विवेक देता है, इसलिए महान् बनता है। मेरा विवेक सब पर छा जाये, यह चेतना का यह है महता उससे प्रतीत है। वह प्रत्येक सुपुप्त विवेक को जगाने के लिए पथ-निर्देशन भी करती है और उसके समुचित विकास के लिए पर्याप्त प्रकाश भी देती है । जहाँ इसका प्रभाव होता है, वहाँ व्यक्ति अनुशास्ता बन सकता है, महान् नहीं। सीधे शब्दों में कहे तो उसका अधिकार केवल कलेवर तक पहुँच सकता है, प्राण उसके लिए सदैव ही अगम्य रहते है। आचार्यश्री का व्यक्तित्व महान् इसलिए है कि प्राण उनके लिए गम्य ही नहीं बने, विन्तु प्राणों ने उनका अनुगमन कर उनका लक्ष्य भी
पाया ।
आचार्यश्री का व्यक्तित्व बहुमुखी है। वे एक और जहां अध्यात्म-साधना में तल्लीन हैं, वहां दूसरी ओर एक बृहत संघ के अनुशास्ता भी । तीसरी ओर वे व्यक्ति-व्यक्ति की समस्याओं को समाहित करने में तत्पर हैं तो चौथी मोर अध्ययन, स्वाध्याय और शिक्षा असार के लिए अथक प्रयास करते दिखाई देते हैं। प्राचीन धागमिक साहित्य की शोध के लिए जहां वे प्रशि जुटे हुए है तो इसके साथ ही जीवन की प्राचीन रूढ़ता के उन्मूलन में भी वे बद्ध परिकर है । इस प्रकार उनके जीवन का प्रत्येक क्षण प्रदम्य उत्साह और सतत गतिशीलता से प्रोत-प्रोत है। जीवन की डोर को हाथ में थामें जो उसको जितना अधिक विस्तार दे सकता है, वही व्यक्तित्व विकास की समग्रता पा सकता है। व्यक्ति-व्यक्ति में अपनत्व की पुट बिखेर देना व्यक्तित्व की सबसे बड़ी सफलता है। यह तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति अपने व्यक्ति' से ऊपर उठ कर अपना सब कुछ उत्सर्ग कर दे। जीवन अनन्त तृष्णाओं का संगम स्थल है । यह प्रत्येक जीवधारी की सामान्य rafस्थिति थी । किन्तु चिन्तन की उदात्तता यहीं विश्राम लेना नहीं चाहती। वह और आगे बढ़ती है और वहां तक बढ़ती है, जहाँ कि तृष्णाएं छिछली बनती हुई तृप्ति का भी पार पाने का यत्न करती है। तृष्णा और तृप्ति हमारी मानसिक कल्पनाओं की ही तो कलनाएं हैं। ये कलनाएं जब उनका पार पा में तत्र व्यक्ति देहातीत वन जाता है। वैसी स्थिति में उसके लिए भागत और अनागत, दृश्य और अदृश्य की सभी सीमाएं होने पर उनसे वह बाधित नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें वह उत्साहपूर्वक आत्मसात् करने का प्रण लिये चलता है। उत्सुकता और उद्विग्नता जैसा कोई भी तत्त्व उसके लिए धवशेष नहीं रह जाता।
जीवन की दो अवस्थाएं
व्यक्ति और देवत्व जीवन की ये दो अवस्थाएं हैं। व्यक्तित्व वह है जो कि व्यक्ति का स्व होता है और देवत्व वह है जो कि व्यक्तित्व को कुछ विशिष्ट ऐश्वर्य में समारोपित करता है। व्यक्तित्व लौकिक होता है और देवत्व अलीकिक । अलौकिक हमारे व्यवहार को नहीं साथ सहता। वह व्यवहार के लिए सदा आदर्श और भगम्य ही बना रहता है,