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अध्याय ]
महामानव तुलसी
हुई हैं। कुछ निष्ठावान व्यक्ति समाज में एक ऐसा पवित्रता का वृत्त तो बना हो सकते हैं, जो उत्तरोत्तर विस्तृत होते हुए कभी सम्पूर्ण समाज को अपने धेरे के अन्दर ले सकता है । खेद है कि अणुव्रत-पान्दोलन की इस महती सम्भावना की ओर विचारकों का ध्यान बहुत कम प्राकृष्ट हुआ है। मित्र, बार्शनिक और मार्ग-दर्शक
दस-बारह वर्षों के सीमित काल में प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने प्रणुव्रत-प्रान्दोलन को एक नैतिक शक्ति का रूप प्रदान कर दिया है। इस प्रान्दोलन का मूलाधार कोई राजनैतिक या आर्थिक संगठन नहीं, बल्कि आचार्यश्री तुलसी का महान् मानवीय व्यक्तित्व ही है। एक सम्प्रदाय के मान्य भाचार्य होते हुए भी प्राचार्यप्रवर ने अपने व्यक्तित्व को साम्प्र. दायिक से अधिक मानवीय ही बनाये रखा है। प्राचार्यप्रवर अणुवतियों के लिए केवल संघ-प्रमुख ही नहीं, उनके मित्र, दार्शनिक और मार्ग-दर्शक (Friend, Philosopher and Guide) भी हैं। वे अपने जीवन की कठिनाइयों, उलझनों और सुखदुःख की सैकड़ों बातें प्राचार्यश्री तुलसी के सम्मुख रखते हैं और उनको अपने संघ-प्रमुख द्वारा जो समाधान प्राप्त होता है, वह उनकी सामयिक समस्याओं को सुलझाने के साथ ही उन्हें वह नैतिक बल भी प्रदान करता है जो अन्ततः प्राध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करता है। आचार्यश्री तुलसी की दृष्टि में हल है हलकापन जीवन का। प्राचार्यप्रवर मनुष्य के जीवन को भौतिकता के भार मे हलका देखना चाहते हैं, उसके मन को राग-विराग के भार से हलका देखना चाहते हैं और अन्ततः उसकी आत्मा को कर्मों के भार से हलका देखना चाहते हैं। उनकी दृष्टि ध्रुव तारे की तरह इसी जीवमुक्ति की ओर लगी हुई है। परन्तु वे लघ मानव को अंगुली पकड़ कर धीरे-धीरे उस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाना चाहते हैं । मेरी दृष्टि में प्राचार्यश्री तुलसी आज भी समाज-सुधारक नहीं, एक प्रात्म-साधक ही हैं और उनका समाज-सुधार का लक्ष्य प्रात्म-साधना के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि का निर्माण करना ही है।
आज के युग में जबकि प्रत्येक व्यक्ति पर कोई-न-कोई 'लेवल' लगा हुआ है और दलों के दलदल में फँसे हए मानवता के पैर मुक्त होने के लिए छटपटा रहे है, किसी व्यक्ति में मानव का हृदय और मानवता का प्रकाश देखकर चिन में ग्राह्लाद का अनुभव होता है। हमारा यह आह्लाद पाश्चर्य में बदल जाता है, जब कि हम यह अनुभव करते हैं कि एक बृहत् एवं गौरवशाली सम्प्रदाय के प्राचार्य होने पर भी उनकी निविशेष मानवता आज भी अक्षुण्ण है। निस्सन्देह प्राचार्यश्री तुलमी एक महान साधक हैं, सहस्रों साधकों के एकमात्र मार्ग-निर्देशक है । एक धर्म-संघ के व्यवस्थापक हैं और एक नैतिक आन्दोलन के प्रवर्तक हैं ; परन्तु और कुछ भी होने के पूर्व वे एक महामानव हैं। वे एक महान् मंत और महान प्राचार्य भी इसी लिए बन सके हैं कि उनमें मानवता का जो मूल द्रव्य है, वह कसौटी पर कसे हुए सोने के समान शुद्ध हैं।
प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने प्राचार्यत्व के पच्चीस वर्ष पूरे किये हैं और इसी उपलक्ष में धवल-समारोह मनाया जा रहा है । सम्भवतः रजत-समारोह इमलिए नहीं मनाया जा रहा है कि वह तो उनके लिए मिट्टी है। हाँ, श्वेताम्बरपरम्परा के प्राचार्य होने के नाते धवल का, उनके लिए कुछ प्राकर्षण हो सकता है। उनकी सम्पूर्ण साधना धवलता की ही तोमाधना है-वस्त्र की धवलता, चित्त की धवलता,वृत्तियों की धवलता और अन्ततः आत्मा की अमल धवलता। प्राचार्यश्री तुलसी अपने को धवल बना कर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, वे युग की कालिमा को भी धो-पोंछकर धवल बना देने पर तुले हुए हैं । इसीलिए तो आज उनके धवल-समारोह में एक विचार और एक लक्ष्य में विश्वास रखने वाले सभी सम्प्रदायों और दलों के व्यक्ति सम्मिलित हो रहे हैं। इस धवल-समारोह के उज्ज्वल क्षणों में उन अमल-धवल चरणों में मेरा भी प्रणत प्रणाम ! क्या मेरा यह प्रणाम भी उस महामानव के चरणों में जाकर धवल बन सकेगा ?
हे गौरव-गिरि उत्तुंग काय! पर-पूजन का भी क्या उपाय?