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१६. ]
प्राचार्यश्री तुलसी मिनापन प्राय
नहीं सुलझा सकता।"
माज का युग भौतिकता का उपासक बन रहा है। वह जीवन की चरम सिद्धि भौतिक उपलब्धियों में देखता है। परिणाम यह है कि आज उसकी निगाह धन पर टिकी है और परिग्रह के प्रति उसकी मासक्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है । वह भूल गया कि यदि सुख परिग्रह में होता तो महाबीर और बुद्ध क्यों राजपाट और दुनिया के बैभव को त्यागते
और क्यों गांधी स्वेच्छा मे अकिंचन बनते । सुख भोग में नहीं है, त्याग में है और गौरीशंकर की चोटी पर वही चढ़ सकता है जिसके सिर पर बोझ की भारी गठरी नहीं होती। प्राचार्यश्री मानते हैं कि यदि पाज का मनुष्य अपरिग्रह की उपयोगिता को जान ले और उस रास्ते चल पड़े तो दुनिया के बहुत से मंकट अपने आप दूर हो जायेंगे।
मानव के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को शुद्ध बनाने के लिए प्राचार्यश्री ने कई वर्ष पूर्व प्रणवत-पान्योलन का सूत्रपात किया था और वह अान्दोलन अब देश व्यापी बन गया है। उस नैतिक क्रान्ति का मूल उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने कषायों को देखे और उन्हें दूर करे। इसके साथ-साथ जो भी काम उसके हाथ में हो, उसके करने में नैतिकता का पूरा-पूरा प्राग्रह रखे । इस प्रान्दोलन को अधिक-से-अधिक ब्यापक और सक्रिय बनाने के लिए प्राचार्यश्री ने बड़े परिश्रम और लगन से कार्य किया है और आज भी कर रहे हैं, चूंकि इस आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य मानव जाति को सुखी बनाना है, इसलिए उसका द्वार सब के लिए खुला है। उसमें किसी भी धर्म, मत अथवा सम्प्रदाय का व्यक्ति भाग ले मकना है । अणवत के व्रतियों में बहुत मे जनेतर स्त्री-पुरुष भी हैं।
इसी आन्दोलन के अन्तर्गत प्रति वर्ष अहिंसा तथा मंत्री-दिवस भी देश भर में मनाये जाते हैं। जिससे तनाव का वातावरण मुधरे और यह इच्छा सामुहिक रूप से व्यक्त हो कि वास्तविक सुख और शान्ति हिंसा एवं वैर से नहीं, बल्कि अहिंसा और भाईचारे से स्थापित हो सकती है।
प्रभावशाली वक्ता और साहित्यकार
प्राचार्यश्री प्रभावशाली वक्ता तथा अच्छे साहित्यकार भी हैं। उनके प्रवचनों में शब्दों का प्राइम्बर अथवा कना की छटा नहीं रहती। वे जो बोलते हैं, वह न केवल सरल-सुबोध होता है, अपितु उसमें विचारों की स्पष्टता भी रहती है। जटिल-से-जटिल बात को वे बहुत ही सीधे-सादे शब्दों में कह देते है । कभी-कभी वे अपनी बात को समझाने के लिए कथा-कहानियों का प्राश्रय लेते हैं । वे कहानियां वास्तव में बड़ी रोचक एवं शिक्षाप्रद होती हैं।
आचार्यश्री प्रायः कविताएं भी लिखते रहते हैं। जब उन कविताओं का सामूहिक रूप में सस्वर पाठ होता है तो बड़ा ही मनोहारी वायुमण्डल उत्पन्न हो जाता है।
लेकिन वे प्रवचन करते हों अथवा गद्य-पद्य लिखते हों, उनके सामने मानव की मूर्ति सदा विद्यमान रहती है और मानवता के उत्कर्ष की उदात्त भावना उनके हृदय में हिलोरें लेती रहती है।
प्राचार्य विनोवा कहा करते हैं कि भूदान यज के सिलसिले में उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया है। लेकिन उन्हें एक भी दुर्जन व्यक्ति नहीं मिला। मानव के प्रति उनकी यह प्रास्था उनका बहुत बड़ा सम्बल है। यथार्थतः प्रत्येक व्यक्ति में सद् और असद् दोनों प्रकार की वृत्तियां रहती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सदसियों सदा जागृत रहें और असद वत्तियों को मनुष्य पर हावी होने का अवसर न मिले ।
आचार्यश्री तुलमी भी इसी विश्वास को लेकर चल रहे हैं। वे लोगों को अपने अन्दर आत्म-विश्वास पंदा करने की प्रेरणा देते हैं और कहते हैं कि इस दुनिया में कोई भी बुरा नहीं है। अच्छा काम करने की क्षमता हर किसी में विद्यमान है।
प्राचार्यश्री के सामने वास्तव में बड़ा ऊँचा ध्येय है, पर मानना होगा कि कुछ मर्यादाएं उनके कार्य की उपयोगिता को सीमित करती हैं। वे एक सम्प्रदाय विशेष के हैं; अत: अन्य सम्प्रदायों को अवसर है कि वे माने कि वे उनके उतने निकट नहीं हैं। फिर वे प्राचार्य के पद पर बैठे हैं, जो सामान्य जनों के बराबर नहीं, बल्कि ऊँचाई पर है। इसके मतिरिक्त उनके सम्प्रदाय की परम्पराएं भी है। यद्यपि उनके विकासशील व्यक्तित्व ने बहुत-सी अनुपयोगी परम्परामों को छोड़ देने