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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ
खड़ा हुमा। लोग उसे समझा-बुझा कर वापस लाये। प्राचार्यश्री ने उससे पूछा-~-क्यों भाई ! तुम माम क्यों गये ? कहने लगा मैं नहीं छोड़ सकता । पाप सरकार में कहीं रिपोर्ट कर दें तो?
प्राचार्यश्री-हम किसी की रिपोर्ट नहीं करते। हम साधु है । हम तो उपदेश के द्वारा ही समझाते हैं। तुम सोचो, यह अच्छी नहीं है। बहुत समझाने-बुझाने के बाद उसने महीने में केवल चार दिन शराब पीने का त्याग किया। यह है कानन और हृदय-परिवर्तन का एक चित्र । हमने पापको नहीं पहिचाना
पहले परिचय में प्राचार्यश्री को समझना जरा कठिन होता है। क्योंकि आज साधु-वेष में जो अन्याय पल रहे हैं, उन्हें देखते यह सम्भव भी नहीं है । पर ज्यों ही उन्होंने प्राचार्यो का परिचय पाया, उन्हें अपने-अाप पर पश्चात्ताप हुआ है। .
प्राचार्यश्री जब सौराष्ट्र के समीप से गुजर रहे थे,रास्ते में एक गांव आया। हमारा वहाँ जाने का पहला ही अवमर था। एक साथ इतने बड़े संघ को देख कर वहाँ के लोग दहल गये और हमारे विषय में तरह-तरह की बातें करने लगे। कई लोग कहते-ये कांग्रेसी हैं, अतः वोटों के लिए पाये हैं। कई लोग कहते-ये साधु का वेष बनाये डाय हैं। कई लोग कहतेये अपने धर्म का प्रचार करने आये हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार की आशंकानों के कारण लोगों ने हमें वहाँ रहने को स्थान भी बड़ी मुश्किल से दिया। एक टूटा-फूटा मन्दिर था। उसी में हम सब जाकर ठहर गये। अनेक प्रकार के कुतूहल लेकर कुछ लोग पाये तो प्राचार्यश्री ने प्रवचन करना शुरू कर दिया। लोग बैठ गये और प्रवचन सुनने लगे। प्रवचन सुन कर उन लोगों के सारे संशय उच्छिन्न हो गये। फिर हम भिक्षा के लिए गये । हमारी भिक्षा विधि को देख कर तो वे और भी प्रभावित हुए । दोपहर को अनेक लोग मिल कर पाये । बातचीत की, प्रवचन मुना तो उनकी अखि खुल गई। प्राचार्यश्री वहाँ मे विहार कर शाम को जाने वाले थे, अतः उनमें से एक बूढा आदमी पागे पाया और कहने लगा--"वापु! पाजआज तो प्रापको यहाँ रुकना पड़ेगा। आँखों में आँसू भरकर वह बोला-मैं आपको मच बताऊं, हमने आपको पहचाना नहीं। हमने समझा ये कोई डाक हैं। इसलिए न तो हम यापकी भक्ति कर पाये और न आपमे कुछ लाभ ही उठा सके। आप तो महान् है, हमें क्षमा करें और आज रात-रान यहाँ जरूर ठहरे। पर प्राचार्यश्री को प्रागे जाने की जल्दी थी, अतः ठहर नहीं सके और चल पड़े। लोगों ने प्राँसू भरे चेहरे से प्राचार्यश्री को बिदाई दी।
महापुरुषों का क्षणमात्र जीवन में प्रकल्प्य परिवर्तन कर देता है, उसी का एक चित्र है। ढलते दिन ढलती अवस्था का एक जर्जर देह हरिजन आचार्यश्री के पास आया और कहने लगा-महाराज ! आपके दर्शन करने आया है। पिछली बार जब आप यहाँ आये थे तो मैंने आपमे तमाख नहीं पीने का व्रत लिया था। याद है न आपको? प्राचार्यश्री के उम समय मौन था, अतः बोले नहीं। कुछ संकेत ही किये ; वृद्ध ने अपना कहना जारी रखा। क्यों याद नहीं महाराज आपके सामने ही तो मैंने अपनी चिलम तोड़ी थी। अब तक पूरा पालन करता हूँ उस नियम का। आचार्यश्री को भी घटना याद हो पाई। अपनी गर्दन हिलाकर उन्होंने उसकी स्वीकृति दी और इशारे में बताया-अभी मेरे मौन है । वृद्ध ने फिर कहना प्रारम्भ किया-महाराज! वह नियम तो मैंने पूरा निभाया है, पर मेरी एक बुरी आदत और है। मैं अफीम खाता हैं। बिना उसके रहा नहीं जाता। पर सोचता हूँ, माज आपके पास आया हूँ तो उसे भी छोड़ता जाऊँ। मैं खद तो छोड़ नहीं सकता, पर आपके पास त्याग करने पर किसी प्रकार मैं उसे निभा ही लूंगा। अतः ग्राज मुझे अफीम-सेवन करने का त्याग दिलवा दीजिए और सचमुच उसने अफीमसेवन का त्याग कर दिया। प्रात्म-विश्वास का जीता-जागता चित्रण
एक छोटा-सा गाँव । पाठशाला का मकान । सायंकालीन प्रार्थना से थोड़े समय पहले का समय । एक प्रौढ़ किसान प्राचार्यश्री के सामने कर-बद्ध खड़ा है। प्राचार्यश्रीने पूछा-कहाँ से पाये हो माई ! कहने लगा-यहीं थोड़ी दूर पर एक गाँव है, वहां से पाया हूँ।