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अध्याय ]
परवेति परवेतिकी साकार प्रतिमा
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प्राचार्यश्री तुलसी की दिनचर्या भी अविराम श्रम का एक उदाहरण है। वे ब्रह्म मुहूर्त में ही शय्या छोड़ देते हैं । एक-दो घण्टे तक प्रात्म-चिन्तन और स्वाध्याय के अनन्तर प्रतिक्रमण-सब नियमों और प्रतिज्ञायों का पारायण करते हैं । हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन उनका प्रिय एवं नियमित व्यायाम है। इसके पश्चात एक घण्टे से अधिक का समय वे जनता को उपदेश तथा उनकी जिज्ञासाओं को शान्त करने में व्यतीत करते हैं। भोजनानन्तर विधाम-काल में हल्का-फुल्का साहित्य पढ़ते हैं। उसके बाद दो से ढाई घण्टे तक का उनका समय साधुओं और साध्वियों के अध्यापन में बीतता है। विभिन्न विषयों पर विभिन्न लोगों से वार्ता के बाद वे दो घण्टे तक मौन धारण करते हैं और इस काल में वे पुस्तक-लेखन
और अध्ययन करते हैं । सूर्यास्त से पूर्व ही रात्रि का भोजन ग्रहण करने के अनन्तर प्रतिक्रमण और प्रार्थना का कार्यक्रम रहता है। एक घण्टे तक पुनः स्वाध्याय अथवा ज्ञान-गोष्ठी के बाद प्राचार्यश्री शय्या ग्रहण कर लेते हैं। उनका यह कार्यक्रम घड़ी की सुई की तरह चलता है और उसमें कभी व्याघात नहीं होता। जब तक किसी व्यक्ति में श्रम और वह भी परार्थ के लिए श्रम करने की हार्दिक भावना न हो,तब तक उक्त प्रकार का यंत्रवत् जीवन असम्भव है।
प्राचार्यश्री के श्रम का दूसरा रूप है-जन-कल्याण । वैसे तो जो जानार्जन और ज्ञान-दान वे करते हैं, वह सब ही जन-कल्याण के उद्देश्य से है; किन्तु मानव को अपने हिरण्यमय पाश में बांधने वाले पापों से मुक्ति के लिए उन्होंने जो देशव्यापी यात्राएं की हैं और अपने शिष्यों से कराई हैं, उनका जन-कल्याण के क्षेत्र में एक विशिष्ट महत्त्व है। इन यात्राओं से आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध के शिष्यों द्वारा की गई वे यात्राएं स्मरण हो पाती हैं जो उन्होंने मानवमात्र के कल्याण के लिए की थी। जिस प्रकार भगवान बुद्ध ने इस यात्रारम्भ से पूर्व अपने साठ शिष्यों को पंचशील का सन्देश प्रसारित करने का आदेश दिया था, ठीक उसी प्रकार आचार्यश्री तुलसी ने आज मे बारह वर्ष पूर्व अपने छ: सौ पचाम शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था--"माधुनो और साध्वियो! तुम्हारे जीवन प्रात्म-मुक्ति और जनकल्याण के लिए सगर्पित है। समीप और मुदूर-स्थित गाँवों, कस्बों और शहरो को 'दन जायो। जनता में नैतिक पुनरुत्थान का सन्देश पहुँचाओ।" तेरापंथ का जो व्यावहारिक रूप है, उसके तीन अंग है-१ पवित्र एवं साधुतापूर्ण पाचरण, २ भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवहार और ३. सत्य में निष्ठा एवं अहिसक प्रवृत्ति । प्राचार्यश्री तुलमी ने अपने शिष्यों को जो उक्त आदेश दिया था, उसका उद्देश्य तेरापंथ के इमी रूप की जनता-जनार्दन के जीवन में प्रवतारणा थी।
अणुव्रत चक्र प्रवर्तन
वर्तमान में भारतीय समाज की जो दशा है, वह किसी से छिपी नहीं है। प्राचीन आध्यात्मिकता का स्थान नितान्त भौतिकता ने ले लिया है । अन्तर्मुख होने के स्थान पर व्यक्ति सर्वथा बहिर्मख हो गया है। विलासिता संयम पर प्रारूट हो गई है और सर्वत्र भोग और भ्रष्टाचार का ही वातावरण दृष्टिगोचर होता है । यह स्थिति किसी भी समाज के लिए बड़ी दयनीय है। इस दुरवस्था से मुक्ति के लिए ही आचार्यश्री ने जनता में प्रणवत चक्र प्रवर्तन का निश्चय किया। यह अणुव्रत ही वस्तुतः तेरापंथ का व्यावहारिक रूप है। इस 'अणुव्रत' शब्द में अणु का अर्थ है-राबसे छोटा और व्रत का अर्थ है-वचन-दन मंकल्प । जब व्यक्ति इस व्रत को ग्रहण करेगा तो उससे यही अभिप्रेत होगा कि उसने अन्तिम मंजिल पर पहुँचने के लिए पहली सीढ़ी पर पैर रख दिया है। इस अणुव्रत के विभिन्न रूप हो सकते हैं और ये सब रूप पूर्णता के ही प्रारम्भक बिन्दु हैं । आचार्यश्री तुलसी ने इसी अणुव्रत को देश के सुदूर भागों तक पहुँचाने के लिए अपने शिष्यों को अाज मे बारह वर्ष पूर्व आदेश दिया था। तब से लेकर अब तक ये शिष्य शिमला से मद्रास तथा बंगाल से कच्छ तक सैकड़ों गांवों और शहरों में पैदल पहुँचकर अणुव्रत की दुन्दुभी बजा चुके हैं। इस अवधि में प्राचार्यश्री ने भी अणुव्रत के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जो अत्यन्त प्रायासकर एवं दीर्घ यात्राएं की है, वे उनके सूर्य की तरह अविराम श्रम की शानदार एवं भविस्मरणीय प्रतीक हैं । राजस्थान के छापर गाँव से उन्होंने अपनी अणुवत-यात्रा का प्रारम्भ किया। उसके बाद वे जयपुर आये और वहाँ से राजधानी दिल्ली। दिल्ली से उन्होंने पदल-ही-पैदल पंजाब में भिवानी, हाँसी, संगरूर, लुधियाना, रोपड़ और अम्बाला की यात्रा की । इसके बाद राजस्थान होते हुए वे बम्बई, पूना और हैदराबाद के समीप तक गये। वहां से लौटकर उन्होंने मध्यभारत के विभिन्न स्थानों तथा राजस्थान की पुन: यात्रा की। इसी प्रकार