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प्राचार्यश्री सुलसी अभिनन्दन प्राय
[ प्रथम
भाचार्यश्री तुलमी ने अपने बाल्यकाल से जो अथक श्रम किया है, उसके दो रूप हैं-शान-प्राप्ति और जनकल्याण । बालक तलमी जब दस वर्ष के भी नहीं थे, तभी मे ज्ञानार्जन की दुर्दमनीय अभिलाषा उनमें विद्यमान थी। अपने बाल्यकाल के संस्मरणों में एक स्थल पर उन्होंने लिखा है-'अध्ययन में मेरी सदा से बड़ी रुचि रही। किसी भी पाठ को कण्ठस्थ कर लेने की मेरी आदत थी। धर्म-मम्बन्धी अनेक पाठ मैंने बचपन में ही कण्ठाग्र कर लिये थे।' अध्ययन के प्रति उनकी तीव लालगा और श्रम का ही यह परिणाम था कि ग्यारह वर्ष की अल्प वय में तेरापंथ में दीक्षित होने के बाद दो वर्ष की अवधि में ही इतने पारंगत हो गए कि उन्होंने अन्य जैन साधुओं का अध्यापन प्रारम्भ कर दिया। उनकी यह ज्ञान-यात्रा केवल अपने लिए नही, अपितु दूसरों के लिए भी थी। निरन्तर श्रम के परिणामस्वरूप वे स्वयं तो संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित हो ही गए, अपितु उन्होंने एक ऐसी शिष्य-परम्परा की स्थापना भी की, जिन्होंने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण उन्नति की है। उनमें से अनेक प्रसिद्ध दार्शनिक, ख्यातनामा लेखक, श्रेष्ठ कवि तथा संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड उद्भट विद्वान् है।
आचार्यश्री की स्मृति-शक्ति तो अद्भत एवं सहजग्राही है ही; परन्तु उनकी जिह्वा पर माक्षात् सरस्वती के रूप में जो बीम हजार श्लोक विद्यमान हैं, वे उठते-बैठने निरन्तर उनके श्रम-साध्य पारायण का ही परिणाम है। उनमें जो कवित्व और कुशल वक्तृत्व प्रकट हुअा है, उसके पीछे थम की कितनी शक्ति छिपी है, इसका अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। ब्रह्म महर्न से लेकर रात्रि के दस बजे तक का उनका ममस्त समय ज्ञानार्जन और जान-दान में ही बीनता है। भगवान महावीर के एक क्षण को भी व्यर्थ न गँवायो' के आदर्श को उन्होंने माक्षात् अपने जीवन में उतारा है। स्वयं की निन्ता न कर मदा दूसरों की चिन्ता की है। वे प्रायः कहा करते हैं कि 'दूसरों को समय देना अपने को ममय देने के समान है। मैं अपने को दूसरों से भिन्न नहीं मानता।' जिम परुष की ममय और श्रम के प्रति यह भावना हो और जो स्वयं ज्ञान का गोमग्न होकर ज्ञान की जाह्नवी बहा रहा हो, उसगे अधिक 'चरैवेति' को सार्थक करने वाला कौन है? उपदेप्टा इन्द्र को कभी स्वप्न भी नहीं हुआ होगा कि किसी कान में पर ऐसा महापुरुष इम पृथ्वी पर जन्म लेगा जो उमका मूनिमन्त उपदेश होगा। सर्वतः अग्रणी सम्प्रदाय
आचार्यश्री तुलसी के तेरापंथ का प्राचार्यत्व ग्रहण करने से पूर्व, अधिकांश साध्वियाँ बहुत अधिक शिक्षित नहीं थीं। यह पानार्यश्री तुलमी ही थे, जिन्होंने उनके अन्दर जान का दीप जगाया। जिस समय उन्होंने साध्वियों का विद्यारम्भ किया था तो केवल तेरह शिष्याएं थीं परन्तु आज उनकी संख्या दो सौ से अधिक है और वे विभिन्न विषयों का अध्ययन कर रही है। इतना ही नहीं, उन्होंने शिक्षा-पद्धति में भी मंगोधन किये। पाठयक्रम को उन्होंने तीन भागो में बाँट दिया-प्रथम में उन्होंने दर्शन, साहित्य, व्याकरण, गब्दकोष, इतिहास, फलित ज्योतिप तथा विभिन्न कला एवं भाषायों के ज्ञान की व्यवस्था की; दूसरे में जैन धर्म की शिक्षा की तथा नीमरे में धर्म-ग्रन्थों के ज्ञान की। साधु-साध्वियों के बौद्धिक एवं मानसिक स्तर को उन्नन करने के उद्देश्य में प्रबन्ध-लेखन, कविता-पाठ और धार्मिक एवं दार्शनिक वादविवादों की व्यवस्था भी की। ग्यारह वर्ष तक वे निरन्तर ज्ञानार्जन और ज्ञान-दान की पवित्र प्रवृत्तियों में संलग्न रहे। इस अद्भुत श्रम का ही यह फल है कि तेरापंथ आज भारत के सर्वतः अग्रणी सम्प्रदायों में से एक है।
ज्ञान के क्षेत्र में प्राचार्यश्री तुलसी ने जो महान कार्य किया है, उसका एक महत्त्वपूर्ण अंग और भी है और वह है-जैन धर्म-ग्रन्थों-नागमों पर उनका अनुसन्धान । ये पागम भगवान् महावीर के उपदेशों का संग्रह हैं। वे ज्ञान के भण्डार हैं; परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के उत्तरकालीन पच्चीस सो वर्ष के समय-प्रवाह ने इन आगमों में अनेक स्थलों पर दुर्बोध्यता उत्पन्न कर दी है। प्राचार्यश्री तुलसी के पथ-प्रदर्शन में अब इन प्रागमों का हिन्दी-अनुवाद तथा शब्दकोष तैयार किया जा रहा है। जिस दिन यह कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो जायेगा, उस दिन संसार यह जान सकेगा कि तपःपूत इस व्यक्ति में श्रम के प्रति कैसी अटूट भक्ति है ! यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि अपनी ज्ञान-साधना मे प्राचार्यश्री तुलमी ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे श्रम के ही दूसरे रूप हैं।