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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनम्बर प्रम्य
[प्रथम
भविष्य का सूचक है। राजस्थान की तपोभूमि से नि:मृत पाज यह आन्दोलन केवल भारतवर्ष की ही चारदीवारी में सीमित नहीं रहा है, बल्कि विदेशों में भी इसकी चर्चा होने लगी है। वास्तव में यह एक रचनात्मक अनुष्ठान है। अपने जीवन-काल के विगत लगभग बारह वर्षों में इस आन्दोलन के अन्तर्गत विभिन्न प्रवृत्तियों का विकास हुआ है और उनमें पाशातीत सफलता भी मिली है। संक्षेप में यह आन्दोलन जन-जीवन का परिमार्जन चाहता है। जहाँ वह नैतिक पतन की ओर जाते हुए मानव को नैतिक नव-जागरण की प्रेरणा देता है, वहाँ वह मनोमालिन्य, वैमनस्य व संघर्ष की ओर जाते हुए मानव-समाज को मंत्री की बात भी कहता है। वास्तव में यह आन्दोलन एक विचार-क्रान्ति है । यह मनुष्य को आदि से अन्त तक जकड़ता नहीं। इसका काम विचारों में स्वच्छता ला देना है। निःसन्देह यह उपक्रम सभी अर्थों में विचार-उच्चता का पोषक है और इसके प्रवर्तक जनवंद्य आचार्यश्री तुलसी सब के लिए वन्दनीय हैं; क्योंकि उन्होंने एक सम्प्रदाय-विशेष के अधिशास्ता होते हुए भी साम्प्रदायिक भावनाओं मे परे रह मानव-मात्र को धर्म ग्रन्थों का नवनीत निकाल कर जीवन-संहिता के रूप में अणुव्रत-आन्दोलन का अनुपम पाथेय दिया है, जिसका उपभोग कर वह (मानव) अपने जीवन को तो सात्त्विक ढंग से बिता ही सकता है, पर साथ-ही-साथ दूसरों के लिए भी वह सुविधाशील बन सकता है।
ऐसे कल्याणकारी महापुरुष के चरणों में मानव का शीश स्वयं ही भुक जाता है और उसकी हत्तत्री से स्वतः ही यह भावना मुखर हो उठती है कि ऐसा युगपुरुष सदियों तक मानव-मात्र का पथ-प्रदर्शन करता रहे और अपने आध्यात्मिक बल से मूञ्छित नैतिकता में प्राण प्रतिष्ठित करने के लिए संजीवनी का अवतारण कर प्राञ्जनेय बने ।
आचार्यश्री तुलसी के प्राचार्य काल एवं सार्वजनिक मेवाकाल के पच्चीस वर्ष पूर्ण होने पर उनके प्रति मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रकट करता हूँ। इन पच्चीस वर्षों के सेवाकाल में अणुव्रत-आन्दोलन को जो बल प्राप्त हुया है, वह किसी से छिपा नहीं है । हम सबकी यही कामना है कि उस बहुमुखी व्यक्तित्व एवं राष्ट्रीय चरित्र पुननिर्माण के कार्य में उनका नेतृत्व हमें सर्वदा प्राप्त होता रहे। इस शुभ अवसर पर मै अणवत-आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्यश्री तुलसी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
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