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अध्याय ]
धर्म-संस्थापन का देवी प्रयास
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तू ही मेरा सच्चा सखा है, किन्तु मुझ में इतना साहस नहीं कि मेरे अन्तर के कूड़े-करकट को निकाल फेंक।
यह मावरण जो मुझे अभिभूत किये हुए है, मिट्टी और मृत्यु का बना हैमैं इससे घृणा करता हूं, परन्तु इसे ही प्रेम से प्रालिंगन किये हूँ। मुझ पर भारी भाभार है, मेरी विफलताएं विराट है, मेरी सम्जा गोपनीय एवं गहरी है, किन्तु जब मैं अपने कल्याण की याचना करने लगता हूं तो इस प्राशंका से कांप उठता हूँ कि कहीं मेरी प्रार्थना स्वीकार न हो जाये।
ऐसी मनःस्थिति में ही साधक को प्रावश्यक जीवन दृष्टि तथा माहस प्रदान करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-"इस मार्ग में अभिक्रम का नाश या प्रत्यवाय नहीं होता; इस धर्म का स्वल्पांश भी महान भय से रक्षा करता, है"; -"कल्याण मार्ग का कोई पथिक दुर्गति को नहीं जाता"; "निम्सन्देह मनुष्य का मन बड़ा चंचल है और बड़ी कठिनाई मे निग्रह में आता है, फिर भी वैराग्य तथा अभ्यास में यह सम्भव है ?" प्रादि-आदि। प्राध्यात्मिकता के पुनर्जागरण का शंखनाद
प्राचार्यश्री तुलसी ने आज के भौतिकता-प्रधान युग में धर्म अर्थात् प्राध्यात्मिकता के पुनर्जागरण के लिए जो शंखनाद किया है, वह धर्म-संस्थापन के समय-समय पर होने वाले देवी प्रयागों की शृंखला की ही एक कड़ी है । व्यवहार क्षेत्र में उन्होंने 'अणुव्रत' की नई व्याख्या करके माधना के मार्ग को सरल बनाया है। धर्म-पथ पर एक अणु के बराबर भी प्रगति की तो उमके अनेक हितकर प्रभाव होंगे, यह स्पष्ट है। गबसे बड़ा हित तो यही है कि प्रधर्म से विमुख होने पर ही धर्म-पथ पर एक पग भी बढ़ा जा सकेगा, अतएय हम अधोगति मे पूर्णतः बच जायेंगे। दूसरे, साधना के पथ की लम्बाई या दुरूहता पर ध्यान लगने से जो अाशंका व दुविधा हमें अभिभूत कर लेती है, उसके बजाय हम केवल अगले एक कदम की ही सोचें तो रास्ता सरलता से कटता जायेगा। बहुत चलना है, मुश्किल चलना है, इस भय के स्थान पर प्रणवत यह भावना सामने रखता है कि एक कदम तो चलो। महात्मा गांधी कहते थे, "मेरे लिए एक कदम काफी है" (One step enough for me)। मंमार जानता है कि एक-एक करके वे कितने कदम चले और मनुष्य-मात्र के लिए साधना का कितना ऊँचा मानदण्ड स्थापित कर गए। यदि हम इस प्रकार एक-एक कदम भी चलें तो उस पश्चाताप के गर्त में न पड़ेंगे, जिसके बारे में एक ईसाई संत ने कहा है
जिसे सम्मान समझा, उस पर चल न पाया।
जिसे कुमार्ग समझा, उससे एल न पाया। मथका
किमहं साधु नाकरवम् किमहं पापमकरवमिति । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का उपदेश प्राध्यात्मिक जीवन-दर्शन की मानी हुई प्राधारशिलाएं हैं । यह उपदेश धर्म के प्रारम्भकाल से दिया जाता रहा है । शाश्वत धर्म के इन मूल सिद्धान्तों को मानव-जीवन के प्रारम्भिक युग में ही तपस्या, चिन्तन एवं स्वानुभव के आधार पर प्रतिपादित किया गया था, किन्तु इसका यह अर्थ