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प्राचार्यग्री तुलसी अभिनम्बन प्रत्य
प्रथम
जैसे एक विदेशी व्यक्ति के ऊपर प्राचार्यश्री की पूर्ण कृपा रही और इसलिए सम्भवतः मैं लोगों की ईया का पात्र भी बना।
एक बार विनोद में मैंने भाचार्यश्री से कहा-मैंने मापके धर्म की एक प्रार्थना (नमस्कार)मन्त्र के कुछ पद कण्ठस्थ किये हैं। क्या पाप सुनने की कृपा करेंगे। प्राचार्यश्री ने धीरे से हाथ हिलाते हुए लोगों को शान्त किया। वह नमस्कार मंत्र मुझे उनके मुनियों ने सिखाया था। उसको मैंने कण्ठस्थ कर लिया था और कई बार पुनरुच्चारण भी कर लिया था ताकि बिना कोई भूल किये मैं उसका उच्चारण कर सकू। मैंने कहा
नमो मरिहंताणं नमो सिद्धार्ण नमो मायरियाण नमो उबझायाणं
नमो लोए सब्बसाहूर्ण मैं उन महात्मानों को नमस्कार करता हैं जिन्होंने मोह, राग और द्वेष रूप शत्रयों को जीत लिया है। मैं उन महात्माओं को नमस्कार करता हूँ जो कि मुक्त अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं। मैं धर्मनायकों को, प्राचार्यों को नमस्कार करता हूँ। मैं धार्मिक शिक्षा गुरुषों को-उपाध्याय को नमस्कार करता हूँ। मैं संसार के सभी साधु साध्वियों को नमस्कार करता हूँ। प्राचार्यश्री ने स्मित हास्य के साथ कहा-यह तो तुम्हारा इस दिशा में प्रथम चरण है। अब तुम मुंह पर मुख वस्त्रिका और हाथ मे रजोहरण कब लेने वाले हो ? इस प्रकार से अन्त में वह दिन आ गया, जिसके दूसरे दिन सुबह पांच बजे ही मैं दिल्ली के लिए प्रस्थान करने वाला था। जब मैं बिदा लेने लगा, तब आचार्यश्री ने हाथ ऊँचा कर आशीर्वाद दिया।
HARMA
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