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८६ "अदैन्यं वैराग्यकृते कृतोऽयं फेशलोचक। यतीश्वराणां वीरत्वं प्रतनर्मल्यदीपकः ॥५०॥
(उमा० श्रा.) इस पद्यका प्रथमें पूर्वोत्तरके किसी भी पद्यसे कुछ सम्बध नहीं है। न कहीं इससे पहले लोंचका कोई जिकर आया और न प्रथमें इसका कोई प्रसग है। ऐसा असम्बद्ध और अप्रासगिक कथन उमास्वामि महाराजका नहीं हो सकता। ग्रंथकर्त्ताने कहाँपरसे यह मजमून लिया है और किस प्रकारसे इस पद्यको यहाँ देनेमें गलती खाई है, ये सब बातें, जरूरत होनेपर, फिर कभी प्रगट की जायेगी।
इन सब बातोंके सिवा इस प्रथमें, अनेक स्थानापर, ऐसा कथन भी पाया जाता है जो युक्ति और आगमसे विलकुल विरुद्ध जान पड़ता है और इस लिये उससे और भी ज्यादह इस बातका समर्थन होता है कि यह ग्रंथ भगवान् उमास्वामिका बनाया हुआ नहीं है। ऐसे कथनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं:
(१) प्रथकार महाशय एक स्थानपर लिखते है कि जिस मंदिर पर ध्वजा नहीं है उस मदिरमे किये हुए पूजन, होम और जपादिक सब ही विलुप्त हो जाते है अर्थात् उनका कुछ भी फल नहीं होता। यथाः
प्रासादे ध्वजनिर्मुक्ते पूजाहोमजपादिकम् । सर्वविलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजोच्छ्यः ॥१०७॥ (उमा०ा) इसी प्रकार दूसरे स्थानपर लिखते हैं कि जो मनुष्य फटे पुराने, खंडित या मैले वस्त्रोको पहिनकर दान, पूजन, तप, होम यास्वाध्याय करता है तो उसका ऐसा करना निष्फल होता है । यथा:
"खंडिते गलिते छिन्ने मलिने चैव वाससि। दानं पूजा तपो होमास्वाध्यायोविफलं भवेत् ॥ १३६ ॥
(उमा० श्रा.)