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उमास्वामिकी असाधारण योग्यता और उस समयकी परिस्थितिको, जिस समयमें कि उनका अवतरण हुआ है, सामने रखकर परिवर्तित पद्यों तथा ग्रंथके अन्य स्वतंत्र बने हुए पद्योंका सम्यगवलोकन करनेसे साफ मालूम होता है कि यह ग्रंथ उक्त सूत्रकार भगवान्का बनाया हुआ नहीं है। बल्कि उनसे दशोशताब्दी पीछेका बना हुआ है। ___ इस ग्रंथके एक पद्यमें व्रतके, सकल और विकल ऐसे, दो भेदोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि सकल व्रतके १३ भेद और विकल व्रतके १२ भेद हैं । वह पद्य इस प्रकार है:
"सकलं विकलं प्रोक्तं द्विभेदं व्रतमुत्तमं ।
सकलस्य त्रिदश भेदा विकलस्य च द्वादश ॥ २५७ ॥ परन्तु सकल व्रतके वे १३ भेद कौनसे हैं ? यह कहींपर इस शास्त्रमें - प्रगट नहीं किया। तत्त्वार्थसूत्रमें सकलव्रत अर्थात् महाव्रतके पांच भेद वर्णन किये हैं। जैसा कि निम्नलिखित दो सूत्रोंसे प्रगट है:
"हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥ ७-१॥ “देशसर्वतोऽणुमहती" ॥७-२॥ सभव है कि पंचसमिति और तीन गुप्तिको शामिलकरके तेरह प्रकारका सकलव्रत ग्रंथकर्ताके ध्यानमें होवे । परन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें, जो भगवान उमास्वामिका सर्वमान्य ग्रंथ है, इन पंचसमिति और तीन
गुप्तिओंको व्रतसंज्ञामें दाखिल नहीं किया है । विकलव्रतकी संख्या जो । बारह लिखी है वह ठीक है और यही सर्वत्र प्रसिद्ध है। . तत्त्वार्थसूत्र में भी १२ व्रतोका वर्णन है जैसा कि उपर्युक्त दोनों सूत्रोंको निम्नलिखित सूत्रोंके साथ पढ़नेसे ज्ञात होता है:
"अणुव्रतोऽगारी"॥ ७-२०॥ । "दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च" ॥७-२१॥