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है, प्रकाशित किया है और इनमेंसे बहुतसोंको उत्तम टीकाओं सहित प्रकाशित किया है । यह खेदका विषय है कि दक्षिणी भारतवर्षके जैनियोंने अपने सहधर्मियोंके दक्षिणी भारतके साहित्यके इन बहुमूल्य ग्रंथोंके मुद्रित करनेमें तथा उन कई अन्य अत्यन्त निर्मल, और स्वच्छ किरणोंवाले रत्नोंको, जो बहुतसे प्राचीन जैन घरों और मठोंके जीर्णशास्त्रभडारों, और अंधेरी गुफाओंमें गढे हुए पड़े हैं, प्रकाशित करनेमें अब तक बहुत कम रुचि प्रकट की है जब कि उनके उत्तरीय साथी अपनी स्वाभाविक उदारता से जैन - गौरवको फैलाने में, अग्रसर हुए है; क्योंकि उन्होंने ऐसे विद्यालय और छात्रालय खोले हैं जो कि विशेषकर उन्हींकी जातिके व्यक्तियोंके निमित्त हैं, जैनकर्त्ताओंके प्रथ प्रकाशित किये हैं, सार्वजनिक पुस्तकालय जिनमें संस्कृत, बंगला, हिंदी, तामिल इत्यादिके केवल जैनमय हैं स्थापित किये हैं, और ऐसे ही अन्य कार्य किये हैं जो उनको सहधर्मियोंकी, जो उत्तरीय भारतके एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले हुए हैं, उन्नति और वृद्धिमें सहायक है । आशा की जाती है कि दक्षिण भारतवर्ष के जैनी भी अपनी जात्युन्नतिकी अनुयोग्यता ( जिम्मेवारी) को, जो उनके ऊपर है, समझ कर जागृत हो जायेंगे और अपने उत्तरीय भाइयों के उदाहरणका अनुकरण करेंगे ।
मोतीलाल जैन,
आगरा