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भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीचादिसदोषधविमिश्रितम् ॥ १४०॥ तथा कुटुम्बभोग्यार्थमारंभः पापकद्भवेत् । धर्मकदानपूजादौ हिंसालेशो मतः सदा ॥ १४१॥" ये पाचों पद्य पं० मेधावीकृत 'धर्मसंग्रहश्रावकाचारके' ९ वें अधिकारमें नम्बर ७२ से ७६ तक दर्ज है। वहींसे लिये हुए मालम होते है।
छ-अन्यग्रंथोंके पद्य । "नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधात्स्वर्गस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥ २६४॥ आसन्नभव्यता कर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः। सम्यक्त्वहेतुरन्तर्वाह्योप्युपदेशकादिश्च ॥ २३ ॥ संवेगो निवेदो निन्दा गर्दा तथोपशमभक्ति । वात्सल्यं त्वनुकम्पा चारगुणाः सन्ति सम्यक्त्वे ॥ ७० ॥" इन तीनों पद्योंमेंसे पहला पद्य मनुस्मृतिके पांचवें अध्यायका है। योगशास्त्रमें श्रीहेमचन्द्राचार्यने इसे, तीसरे प्रकाशमें, उद्धृत किया है और मनुका लिखा है। इसीलिये या तो यह पद्य सीधा 'मनुस्मृति' से लिया गया है या अन्य पद्योंकी समान योगशास्त्रसे ही उठाकर रक्खा गया है। दूसरा पद्य यशस्तिलकके छठे आश्वासमें और धर्मसंप्रहश्रावकाचारके चौथे अधिकारमें 'उक्तं च ' रूपसे लिखा है। यह किसी दूसरे ग्रंथका पद्य है- इसकी टकसाल भी अलग है-इसलिए ग्रंथकर्त्ताने या तो इसे सीधा उस दूसरे प्रथसे ही उठाकर रक्खा है
और या उक्त दोनों प्रथों से लिया है। तीसरा पद्य 'वसुनन्दिश्रावकाचार' की निम्नलिखित प्राकृत गाथाकी सस्कृत छाया है:
“संबेओ णिवेओर्णिदा गरुहा य उवसमो भत्ती। पच्छल्लं अणुकंपा अgगुणा हुति सम्मत्ते ॥४९॥