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५१ घ-कुन्दकुन्दश्रावकाचारसे*। "आरभ्यैकांगुलाद्विम्वाधावदेकादशांगुलं। (उतराध) १०३॥ गृहे संपूजयेद्विम्बमूर्व प्रासादगं पुनः । प्रतिमा काटलेपारमस्वर्णरूप्यायसां गृहे ॥ १०४॥ मानाधिकपरिवाररहिता नैव पूजेयत् । (पूर्वार्ध) १०५॥ प्रासादे ध्वजनिर्मुक्के पूजाहोमजपादिकं । सर्वे विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यो ध्वजोच्छयः ॥१०७॥ अतीताब्दशतं यत्स्यात् यच्च स्थापितमुत्तमैः। तांगमपि पून्यं स्याद्विम्वं तनिष्फलं न हि ॥ १०८॥" उपर्युक्त पद्य कुन्दकुन्दश्रावकाचारसे लिये हुए मालूम होते है। इनमेंसे अन्तके दो पद्य आठवें उल्लासके हैं जिनका नम्बर, इस उल्लासमें, ७९ और ८० दिया है। शेष पद्य प्रथम उल्लासके है। प्रथम उल्लासमें इन पद्योंका नम्बर क्रमशः १३७, १७१ और १३३ दिया है। ऊपर जिन उत्तरार्ध और पूर्वाधोंको मिलाकर दो कोटक दिये गये हैं, कुन्दकुन्दश्रावकाचारमें ये दोनों श्लोक इसी प्रकार स्वतंत्र रूपसे नं. १३७ और १३८ पर लिखे है। अर्थात् उत्तरार्धको पूर्वार्ध और पूर्वार्धको उत्तरार्ध लिखा है । उमास्वामिश्रावकाचारमें उपर्युक्त श्लोक न, १०३ का पूर्वार्य और श्लोक नं. १०५ का उत्तरार्ध इस प्रकार दिया है:__ "नवांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु पडांगुले (पूर्वाध)१०३॥"
"काष्ठलेपायसां भूताः प्रतिमा: साम्प्रतं न हि (उत्तराध)१०५॥"
- यद्यपि इस श्रावकाचारकी कुछ सधियोंमें यह प्रगट किया गया है कि यह ग्रंथ श्रीजिनवद्राचार्यके शिष्य कुन्दकुन्दस्वामीका बनाया हुआ है । और मग. लाचरणमें 'वन्दे जिनविधुं गुरु' इस पदके द्वारा प्रथकाने जिनचन्द्र गुरुको नमस्कार भी किया है । तथापि यह ग्रंथ समयसारादि प्रोंके प्रणेता भगवत्कुदकुन्दाचार्यका बनाया हुआ नहीं है। परंतु उमास्वामिश्रावकाचारसे पहलेका बना हुआ जरूर मालूम होता है । इस प्रथकी परीक्षा फिर किसी स्वतत्र लेख द्वार की जायगी।
लेखक।
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