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कक्षामें हिन्दीकी पढाई आवश्यक कर दी जाय और अन्तिम कक्षा तक उसका इतना ज्ञान करा दिया जाय कि विद्यार्थी हिन्दीके अच्छे जानकार और लेखक बन जावें। यदि उचित समझा जाय तो प्रारंभकी कक्षाओंमें धर्मशास्त्र आदि एक दो विषय हिन्दीमें ही पढ़ाये जानेका प्रबन्ध किया जाय।
३. आजकलके जमानेमें केवल न्याय, व्याकरण, काव्य, और धर्मशास्त्रके ज्ञानसे काम नहीं चलसकता-केवल इन्हीं के ज्ञाताओंकी विद्वानोंमें भी गणना नहीं हो सकती है। केवल इन्हीं विषयोंके जाननेवाले इस समय कार्यक्षेत्रमें अवतीर्ण नहीं हो सकते। शायद पूर्वकालमें भी इनके सिवा अन्यान्य विपयोंके जाननेकी जरूरत थी। श्रीसोमदेवसूरिने अपने नीतिवाक्यामृतमें कहा है कि " सा खलु विद्या विदुषा कामधेनुः, यतो भवति समस्तजगतः स्थितिपरिज्ञानम्। लोकव्यवहारज्ञो हि मूखोंऽपि सर्वज्ञः अन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायत एव । ते खल प्रज्ञापारमिताःपुरुषाः ये कुर्वन्ति परेषा प्रतिबोधनम्। अनुपयोगिना महतापि कि जलधिजलेन।" अर्थात् "जिससे सारे जगतकी स्थितियोंका ज्ञान होता है-दुनियाकी सारी बातोंकी जानकारी होती है, वह विद्या विद्वानोंके लिए कामधेनु या इच्छित फलोंकी देनेवाली है। वह मूर्ख या बिना पढ़ा लिखा भी सर्वज्ञ है जो लोकव्यवहारज्ञ है-दुनियाकी सारी व्यवहारोपयोगी बातोंको जानता है; परन्तु जो कोरा पण्डित है-उसे कोई नहीं पूंछता; उसकी सब जगह अवज्ञा होती है। जो दूसरोंको समझा सकता है-दूसरोंके अज्ञानको दूर करसकता है वही सच्चा बुद्धिमान् है किन्तु जिसकी विद्या निरुपयोगी है-किसीके काम नहीं आसकती है, वह किसी कामका नहीं। समुद्रके जलका कुछ पार नहीं, परन्तु जब वह किसीके पीनेके कामका नहीं तब उसका होना न होना बराबर है। " श्रीसो