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इसके सिवा मनुष्य जो कुछ मनुप्यके पाससे पा सकता है वह कलके पाससे नहीं पा सकता। कल किसी वस्तुको सामने तो उपस्थित कर देती है परन्तु दान नहीं कर सकती। वह तेल तो दे सकती है; परन्तु चिराग जला देना उसकी शक्तिसे बाहर है।
यूरोपकी दशा हमारे देशसे भिन्न है। वहाँ मनुष्य समाजके भीतर रहकर मनुष्य बनता है, स्कूल उसे थोडीसी सहायता-भर देते हैं। लोग जो विद्या प्राप्त करते है, वह वहाँके मनुष्यसमाजसे जुदा नहीं-वहीं उसकी चर्चा होती है और वहीं उसका विकाश होता है। समाजके बीच नाना आकारों और नाना भावोंसे उसका सञ्चार होता रहता है-लिखने पढनेमें, बातचीतमें, कामकाजमें वह निरन्तर प्रत्यक्ष हुआ करती है। वहाँ जनसमाजने जो कुछ समय समय पर, नाना घटनाओं और नाना लोगोंके द्वारा पाया है, सञ्चय किया है और अपना भोग्य बनाया है, उसीको विद्यालयोके भीतर होकर बालकोंको 'परोस देनेका केवल एक उपाय कर दिया है-इससे अधिक और कुछ नहीं।
इसी लिए वहाँके विद्यालय समाजके साथ मिले हुए हैं-वे समाजकी मिट्टीमेसे ही रस खींचते है और समाजको ही फल देते हैं।
किन्तु, जहाँ विद्यालयं अपने चारों ओरके समाजके साथ इस तरह एक होकर नहीं मिल सकते-समाजके ऊपर बाहरसे चिपकाये हुए होते हैं वहाँ वे शुष्क और निर्जीव बने रहते हैं। हमारे यहॉके विद्यालय ठीक इसी प्रकारके हैं। उनसे हम जो कुछ पाते हैं, वह काटते. पाते है और वह पाई हुई विद्या ऐसी होती है कि प्रयोग करनेके समय कुछ काम नहीं दे सकती । दशसे लेकर चार बजे तक हम जो कुछ कण्ठ करते हैं, जीवनके साथ, चारों ओरके मनुष्यसमाजके साथ,