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अभीतक इस यन्त्रका व्यवहार शुरू नहीं हुआ है। जब तक यहॉवालोंको इसके दर्शन न हों, तब तक आर्यसमाजी विद्वानोंको चाहिए कि वे किसी वेदमन्त्रको खोजकर सिद्ध करे कि हमारे वैदिक ऋषि हजारों वर्ष पहले इस यन्त्रका व्यवहार करते थे और जैन पण्डितोंको अपनी शास्त्रसभाओमे यह कहकर ही श्रोताओकी जिज्ञासा चरितार्थ कर देना चाहिए कि भाई, जो यह जानता है कि पुद्गलोमे अनन्त शक्तियाँ है, उसे ऐसे आविष्कारोंसे जराभी आश्चर्य नहीं हो सकता।
विविध-प्रसङ्ग। १ मनुष्यगणनाकी रिपोर्टमें जैनजातिकी संख्याका ह्रास ।
पिछली १९११ की सेंससरिपोर्टके पृष्ठ १२६ मे जैनोके विपयमें जो कुछ लिखा है उसका साराश यह है:-"भारतके धर्मोमेंसे जैनधर्मके माननेवाले लोगोंकी संख्या १२॥ लाख है। संख्याके लिहाजसे जैनसमाज बहुत ही कम महत्त्वका है । भारतको छोड़कर इतर देशोंमे जैनधर्मके माननेवाले बहुत नही दिखते । राजपूताना, अजमेर और मारवाड़ प्रान्तमें इनकी सख्या २ लाख ५३ हजार और दूसरी रियासतो तथा अन्यान्य प्रान्तोंमे ८ लाख १५ हजार है। अजमेर, मारवाड़ और वम्बई अहातेकी रियासतोंमें उनका प्रमाण शेष जनसंख्याके साथ सैकड़ा पीछे ८, राजपूतानेमें ३. बडोदामें २ और बम्बईमें १ पडता है। दूसरे स्थानोमें उनकी वस्ती बहुत विरल है । ये लोग अधिकतर व्यापारी है। पूर्वभारतमे प्रायः सभी जन व्यापारके ही उद्देश्यसे जाकर बसे है । दक्षिणमें जैनोकी सख्या थोडी है और उनमे प्रायः खेतीसे जीविका निर्वाह करनेवाले है । सन् १८९१ से जैनोंकी सख्या धीरे