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कुछ कालतक महावीर और बुद्धके सिद्धान्त और धर्म एक दूसरेके बराबर वरावर (समानान्तर रेखाओंमें ) चलते रहे । यह भले प्रकार निर्धारित किया जा सकता है कि महावीरका साक्षात् शिष्य और उनकी शिक्षाओंको संग्रह करनेवाला इन्द्रभूति गौतम, वृद्धधर्मके प्रसिद्ध संस्थापक बुद्धगौतम तथा न्यायसूत्रके कर्चा ब्राह्मण अक्षपाद गौतमका समकालीन था। हम देखते हैं कि बौदोंके 'त्रिपटिक' जैसे धर्मग्रंथों में जैनधर्मके सिद्धान्तोंका उल्लेख मिलता है और जैनियोंके धर्मग्रंथों में, जिन्हे 'सिद्धान्त' कहते हैं बौद्धोंके सिद्धान्तोंका विवेचन (गुणदोपविचार ) पाया जाता है।
सर्वसाधारणतक पहुँचने तथा अपने उच्च सिद्धान्तोंका मनुष्यसमूहमें प्रसार करनेके लिए इन दोनों महान् शिक्षकोंने, अपनी शिक्षाके द्वारस्वरूप, उस समयकी दो अत्यन्त लोकप्रिय और प्रचलित भाषाओंको पसद किया था-बुद्धने पालीभाषाको और महावीरने प्राकृत भापाको । इस प्रतिवादके विषयमें कि पाली और प्राकृत भापायें इतनी प्राचीन नहीं हो सकती हैं कि उनका अस्तित्व सन् ईसवीसे ६०० वर्ष पहले माना जाय, इतना कहा जा सकता है कि ये भापायें या स्पष्टतया इनकी वे खास शकलें (आकृतियाँ), जिनमें महावीर और बुद्धने शिक्षा दी, उस पाली और प्राकृत ग्रंथोंकी भाषासे जो हम तक पहुँची है जरूर ही बहुत भिन्न थीं। और यह बात इस मामलेसे आसानीके साथ स्पष्ट की जा सकती है कि उनकी शिक्षाकी भापायें, जो हम तक लिखित रूपसे नहीं किन्तु मौखिक रूपसे पहुँची हैं दोनों भापाओंके साधारण परिवर्तनोंके साथ साथ परिवर्तित होती रही हैं।
सन् ईसवीकी पहली शताब्दीमें बौद्धधर्म दो शाखाओंमें विभक्त हो गया, जिनको 'महायान' और 'हीनयान,' अर्थात् बड़ा वाहन और