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________________ २४० यों तो देशभक्तिकी भारतवर्षकी सव ही जातियों और समाजोंमें कमी है; परन्तु जैनसमाज इससे बिलकुल ही खाली है. वह जानता ही नहीं कि देशभक्ति किसे कहते हैं । बल्कि अपनी झूठी राजभक्ति प्रकट करनेकी धुनमें देशभक्तिको वह एक तरहका पागलपन समझता है। जैन समाजमें एक तो कोई नेता ही नहीं हैं और जो नेता कहलानेका दम भरते हैं-शिक्षा प्रचारादि कामोंमें जिनका थोड़ा बहुत हाथ है, वे इतने संकीर्ण हृदयके है--उनके विचारोंका क्षेत्र इतना संकुचित है कि उसके भीतर इस देशभक्तिरूप उदार धर्मको स्थान ही नहीं मिल सकता है । यही कारण है कि एक सम्पन्न साक्षर और प्रतिष्ठित समाज होनेपर भी राष्ट्रीयताकी दृष्टिसे जैनसमाज किसी गिनतीमें नहीं। देशकी भिन्न भिन्न जातियोंमें तथा सम्प्रदायोंमें इस समय देशभक्ति. और राष्ट्रीयताके भाव बढ़ रहे है-लोग समझने लगे है कि अपने अपने धर्मों और विचारोंकी रक्षा करते हुए इस सार्वजनिक धर्मकी-या राष्ट्रीयताकी उपासना करना भी हमारा कर्तव्य है और यह समझकर हजारों लोग कमर कसकर कार्यक्षेत्रमें भी उतर पड़े हैं । अभी अभी देखते देखते भारतमाताके हजारों सूपूत अपनी अपनी संकीर्ण परिधियोंका उलंघन करके स्वार्थसे मुख मोड़कर देशकी या भारतवासी मात्रकी सेवा करनेमें तत्पर हो गये है। प्रत्येक धर्म या सम्प्रदायके माननेवालेको. प्रत्येक ऊंच या नीच कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्यको और प्रत्येक अमीर या गरीबको वे अपना भाई समझते है, उसके दुःख दूर करनेका प्रयत्न करते हैं उसको ऊँचा उठानेके लिए शिक्षा आदिका प्रबन्ध करते हैं. और भारतवासी मात्रके अधिकारोंकी रक्षा करनेके लिए कष्टोंकी परवा न करके निरन्तर आन्दोलन करनेमें दत्तचित्त रहते
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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