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पाप किया, उसीका फल आज हमारे सामने है । यदि अब भी हमन
चेते, तो इस अपात्रपूजाके और भी बुरे बुरे फल देखनेके लिए हमें तयार रहना चाहिए।
-तेरापन्थी।
जैनी क्या सबसे जुदा रहेंगे? __" हे वृद्ध ! हे चिन्तातुर! हे उदासीन! तुम उठो, राजनीतिक आन्दोलनमें शामिल होओ या दिव्य सेजपर पड़े पड़े अपनी जवानीकी बड़ाई बखान बखान कर पुरानी हडियोंको पटको, देखो तो उससे तुह्मारी लज्जा दूर होती है या नहीं।"
-रवीन्द्रनाथ। यह बड़े ही सन्तोषकी बात है कि जैन समाज उन्नतिके मार्गपर कदम बढ़ाने लगा है। शिक्षाप्रचार, समाजसुधार, धर्मविस्तार आदि उन्नतिके कार्योंमें वह लग चुका है। परन्तु जब हम देखते हैं कि उसकी चाल सबसे निराली है; वह आपहीको अपने पथका पथिक समझ रहा है दूसरोका अस्तित्व ही मानो उसकी दृष्टिमे नहीं है, तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि हिन्दु, मुसलमान, पारसी, सिख, ईसाई आदि सारे भारतवासियोसे जैनी क्या जुदा ही रहेंगे ?
उनके सभा सुसाइटियोंके जल्सोंमें, समाचारपत्रोंके लेखोंमें, नेताओं और उपदेशकोंके व्याख्यानोमें, पाठशालाओं विद्यालयोंकी पाठ्य पुस्तकोंमें, धनवानोंके दानकार्योमे, समाजसेवकोके कामोंमे इस तरह जहाँ देखिए वहीं ऐसा मालूम होता है कि जैन समाजने अपनी एक संकीर्ण परिधि बना रक्खी है; उससे बाहर मानो उसके लिए कुछ कर्तव्य ही नहीं है। देशकी प्रगतिसे वह सर्वथा.अज्ञान है और देश राष्ट्र