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देकर रुपया अदा करते हैं। ज्ञान इतना है कि स्वयं ही आपको कुन्दकुन्द महर्षिके प्रतिरूप समझते हैं। श्रद्धान इतना दृढ है कि हमारी पादपूजा किये बिना श्रावकोंका कल्याण ही नहीं हो सकता
और चारित्र-चारित्रके विषयमें तो कुछ न कहना ही अच्छा है। यह दशा होनेपर भी ये समझते हैं कि श्रावकोंपर शासन करनेका हमको स्वाभाविक स्वत्व है-हम भगवान्के यहॉसे इनके साथ मनमाना वर्ताव करनेका पट्टा ही लिखा कर ले आये हैं।
अब जरा श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधुओंकी ओर भी एक दृष्टि डाल जाइए। इनमें यति महाशय तो इतने अधिक गिर गये हैं कि उनपरसे स्वयं श्वेताम्बरी श्रावकोंकी ही श्रद्धा हट गई है ! सुनते हैं कि अधिकांश यति लोग साधारण श्रावकोंके समान परिग्रह रखते और रोजगार आदि करते हैं। वैद्यक, ज्योतिष, मत्र, यंत्र, तंत्रादि इनके प्रधान व्यवसाय हैं। दूसरे प्रकारके सवेगी आदि साधुओंमें बहुतसे सज्जन विद्वान् और धर्मोन्नति करनेवाले हैं और उनका आचरण भी प्रशसनीय है। परन्तु औरोंके विषयमें यह बात नहीं है; वे अपने पदसे बहुत ही नीचे गिरे हुए हैं ।*
* श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदायमें मुनि आर्यिकाओंकी संख्या बहुत अधिक है-प्रतिवर्ष ही अनेक नये साधु और आर्यिकायें बनती हैं। इन नये दीक्षितोंमें अधिक लोग ऐसे ही होते हैं जिनकी उमर बहुत कम होती है और इसका फल यह होता है कि युवात्स्थामें जव उनकी इन्द्रियोंका वेग बढता है तय वर्तमान देशकालकी परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन रही हैं कि वे आपको नहीं संभाल सकते और बहुत ही नीचे गिर जाते हैं। अपरिपक्वावस्थाका उनका क्षणिक वैराग्य और सयम इस समय उनकी रक्षा नहीं कर सकता । दीक्षाको इस प्रणालीको सशोधन करनेकी बहुत जरूरत है, परन्तु अपने शिष्यपरिवारको बढ़ानेकी धुनमें लगे हुए साधु इस प्रकारके सशोधनका घोर विरोध करते हैं और बहुतसे अन्धाश्रद्धाल श्रावक भी उनकी हॉमें हाँ मिला रहे हैं।
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