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२२८ मुझे भट्टारकोंपर श्रद्धा होने लगी। यद्यपि मै यह जानता था कि परिग्रहके धारण करनेवाले साधु दिगम्बर सम्प्रदायके गुरु नहीं हो सकते हैं; परन्तु गुरुओंकी आवश्यकता मुझे इतनी अधिक प्रतीत होती थी उनके बिना मैं अपने धर्म और समाजकी इतनी अधिक हानि समझ. रहा था कि भट्टारकोंके अस्तित्वकी अवहेलना मुझसे न हो सकी। मैंने अपने दिगम्बरानुरक्त मनको इस युक्तिसे सन्तुष्ट किया कि भट्टारक हमारे गुरु अवश्य हैं परन्तु वे निम्रन्थाचार्य नहीं किन्तु गृहस्थाचार्य है और एक प्रकारके गृहस्थ होकर भी वे हमारे गुरुओंके अभावको थोड़ा बहुत पूर्ण कर सकते हैं। इस विश्वाससे मैं भट्टारकश्रद्धा बढ़ाने
और उसके प्रचार करनेका प्रयत्न करने लगा। ___ इसी समय मुझे दो चार श्वेताम्बर साधुओंके कार्योंका पता लगा। उनके प्रयत्नसे तथा उपदेशसे अनेक धनी श्रावकोंने विद्याप्रचार, पुस्तकप्रचार आदिकी कई सस्थायें खोली थी और उनमें लाखों रुपया खर्च किया था। यह उस समयकी बात है जब कि दिगम्बरसमाज बिलकुल निश्चेष्ट था ।महाविद्यालयादि एक दो छोटी छोटी सस्थाओंको छोड़कर उसकी और कोई संस्था नहीं थी। ऐसी अवस्थामें गुरुओंके अभावको अतिशय दुःखमय अनुभव करना मेरे लिए बिलकुल स्वाभाविक था। मै निरन्तर इसी विचारमें निमग्न रहने लगा। कई बार मेरी इच्छा हुई कि । भट्टारकोंके विषयमें कुछ लिखनेका प्रयत्न करूँ; परन्तु विचारसहिप्णुताकी एक तिनकेके भी बरावर कदर न करनेवाले कट्टर तेरापंथियोंके डरके मारे मुझे साहस न हुआ। अपने विचारोंको अपने ही मनमें मसोसकर मैं ससारकी प्रगतिको चुपचाप देखने लगा।
तबसे अब तक कई वर्प वीत गये । इस वीचमें मुझे कई भट्टारकोंसे, कई श्वेतास्वर साधुओसे, कई स्थानकवासी मुनियोंसे, कई क्षु