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अंधकारमें पड़ा हुआ है और विशेप कर जैन इतिहासको तो बडी दुर्दशा हो रही है। आजकलके इतिहासमर्मज्ञोंने भारतवर्पके प्राचीन इतिहासको चार बातोंपर निर्भर कर दिया है:(१) वैदिक, बौद्ध और जैनधर्मसम्बन्धी पुराण जो कि विशेप कर
सस्कृत, पाली, प्राकृत, आदि भाषाओंमें लिखे हुए हैं: (२) अनेक भारतवर्षीय विद्वानोंके प्राचीन काव्य अथवा प्रामा
णिक ग्रथ, (३) भारतभ्रमण करनेवाले विदेशी यात्रियोंकी लिखित पुस्तकें (४) प्राचीन इमारतें, शिलालेख, ताम्रपत्र और सिक्के ।
इनमेंसे पुराणोपर तो लोगोंकी बहुत ही कम श्रद्धा है क्योंकि उनमे परस्पर बड़ा मतभेद मिलता है, और अतिम प्रमाण अर्थात् · शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि पर भारतवर्षके प्राचीन इतिहासका सबसे
अधिक आधार रक्खा गया है। इसी आधार पर पुरातत्त्वान्वेषी महाराज विक्रमादित्यका अस्तित्व ईसाके ५७ वर्ष पूर्व (जैसा कि होना चाहिए) मानते ही नहीं क्योकि विक्रमादित्य सरीखे पराक्रमी राजाका कोई शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्का इत्यादि आज तक मिला ही नहींजब कि इनके पूर्व और समकालीन अशोक इत्यादि अनेक राजाओंके शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि मिलते है । इसी आधार पर अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानोंने विक्रमके समयनिर्णयार्थ अपनी अपनी कल्पनायें स्थापित करके आकाश पाताल एक कर डाले हैं। विषयान्तर हो जानेके कारण उनका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा सकता। __ हमारे तीर्थकरों और जैनधर्मानुयायी राजा, महाराजाओं कवियों और प्रथकारोंके विषयमें बडी निर्मूल कल्पनाये प्रचलित हैं और उनसे सर्व साधारणका इस विषयमें बडा मिथ्या ज्ञान हो रहा है। सरकारी