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१८६ और जैसा कि बनारसीदासजीने स्वयं लिखा है कि उस समय श्रावक और यति लोग मुझे 'खोसरा-मती' कहते थे उन्हें एक नवीन मतका प्रवर्तक लिख दिया होगा । परन्तु कविवरकी आगे यह दशा नहीं रहीं थी। वि० स० १६९२ मे प० रूपचन्दजीका आगरेमें आगमन हुआ । उन्होंने इन्हे अध्यात्मके एकान्त रोगमें ग्रसित देखकर गोम्मटसाररूप औषधि देना प्रारंभ कर दिया । तब गुणस्थानोंके अनुसार ज्ञान और क्रियाका विधान सुनते ही वनारसीदासजीके हृदयके पट खुल गये । वे कहते हैं:तव वनारसी औरहि भयौ, स्यादवादपरणति परणयो। सुनि सुनि रूपचंदके वैन, वानारसी भयो दिदजैन ॥ हिरदेमैं कछु कालिमा, हुती सरदहन चीच ।
सोउ मिटी समता भई, रही न ऊँच न नीच ॥ इससे स्पष्ट है कि जिस अवस्थाका वर्णन उपाध्यायजीने किया है वह * सवत् १६८० से लेकर १६९२ तककी है-परन्तु आगे वनारसीदासजी दृढश्रद्धानी जैन बन गये थे। __ इस वीचमें कविवरने वहुतसी पद्यरचना की थी। उसका सग्रह भी वनारसीविलासमें किया गया है। यद्यपि उक्त रचना उस समय की है जब वे केवल निश्चयावलवी ये तो भी उसमें कोई दोष नहीं है। जीवनचरितमें उसके विषयमें कहा है:
सोलह सौ वानवै लौं, कियो नियतरसपान । पै केवीसुरी सव भई, स्यादवाद परमान॥ इससे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि वनारसीदासजीकी रचना सर्वथा निर्दोष और कल्याणकारिणी है; उससे जैनधर्मको या
* उपाध्यायजीने वनारसीदासजीके मतकी उत्पत्तिका समय भी यही १६८० बतलाया है। १नियतरस-निश्चयनय । २ कविता।