SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ उनके इस आदर और भक्तिमावको क्षीण करनेके लिए सहयोगी जैनशासनने अपने २४ दिसम्बरके अफमें एक लेख प्रकाशित किया है और उसमें बनारसीदासजीको एक नवीन मतका प्रवर्तक और निन्हव ठहराया है। हम इस लेखके द्वारा यह बतला देना चाहते है कि बनारसीदासजी जैसा कि सहयोगी समझता है शुष्क अध्यात्मी निन्हव या किसी पाखण्डमतके प्रवर्तक नहीं थे। बनारसीदासजीके समयमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके एक विद्वान् हो गये है। उनका नाम था श्रीमेघविजयजी उपाध्याय । उपान्यायजीने 'युक्तिप्रबोध' नामका एक प्राकृत नाटक और उसकी स्वोपजसस्कृत टीका लिखी है। यह नाटक बनारसीदासजीके मतका खण्डन करनेके लिए लिखा गया था जैसा कि नाटककी इस प्रारभिक गावासे मालूम होता है: पणमिय वीर जिणंदं दुम्मयमयमयविमदणमयंदं । वोच्छं सुयणहियत्थं वाणारसीयस्समयभेयं ॥ अर्थात् दुर्मतरूपी मृगके नाश करनेके लिए मगेन्द्रके समान महाचीर भगवानको नमस्कार करके, मैं सुजनोंके हितार्थ पानारसीदासके मतका भेद बतलाता हूँ। ___ उक्त नाटकके अभी तक हमें दर्शन नहीं. हुए परन्तु जैनशासनके कथनानुसार उसमे लिखा है कि " वनारसीदास गरेके रहनेवाले श्रीमाली वैश्य थे और लघु खरतरगच्छके अनुयायी थे। श्वेताम्बर सम्प्रदायके माने हुए तत्त्वोंपर उनकी श्रद्धा थी। उनकी धर्मदृढता रुचि और श्रद्धा प्रशसनीय थी। समय समयपर वे प्रोपध उपवासादि तप और उपधान वगैरह किया करते थे; सामायिक प्रतिक्रमण आदि नित्यनियमोंकी भी वे पालना करते थे। इसके साथ ही वे साधु और
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy