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जैनइतिहासकी दुर्दशा। आलस्य-निद्रामें सोये हुए जैनियोंको अब यह प्रतीत हो चला है कि सर्वश्रेष्ठ जैनजाति उन्नतिके शिखरसे गिर कर अवनतिके गढ़ेमे पहुंच चुकी है। प्रिय बधुओ, यदि तुम्हें अपनी प्राचीन श्रेष्ठता और सभ्यताका भलीभाँति कोई अनुभव करावे तो मुझे दृढ विश्वास है कि तुम एक क्षण भी इस गढ़ेमें पड़ा रहना कदापि न सहन कर सकोगे; किन्तु इस अवनतिके बंधनको एकदम तोडकर उन्नति-शिखरकी ओर शक्तिपूर्वक गमन करनेको उत्कठित हो जाओगे। क्या तुम अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्द्धमान महावीरस्वामीका जीवनचरित्र भूल गये ? क्या तुमको नहीं याद कि उन्होंने स्वात्मकल्याण, और प्राणीमात्रके हितके लिए कैसे कैसे कष्ट उठाये थे? क्या तुमको नहीं मालूम कि जिस समय बौद्ध आदिक अनेक धर्मावलम्बी हमको हडप जानेको कटिबद्ध थे और हमारा अस्तित्व ही मिटा देना चाहते थे, उस समय हमारे आचार्योंने हमारे धर्मकी कैसे रक्षा की थी और अनेक दिग्गज वादियोंपर विजय प्राप्त करके जैनधर्मकी विजय-पताका फहरायी थी? क्या तुम भूल गये कि श्रीअकलङ्कदेवने बाल-ब्रह्मचारी रहकर बौद्धोंके यहाँ विद्याध्ययन किया और अतमे उनका महत्त्व मिट्टीमें मिला दिया ? क्या तुम श्रीजिनसेनाचार्यके पाण्डित्यसे अपरचित हो ? क्या तुमने श्रीसमतभद्र और श्रीमानतुङ्गका नाम नहीं सुना ? क्या श्रीरामचद्र सरीखे धार्मिक महात्माओंका प्रभाव तुम्हारे हृदयसे सर्वथा ही उठ गया ? क्या तुमको अविदित है कि एक ऐसा भी समय था जब तुम्हारे पूर्वजोंके प्रभावसे जैनधर्मका डका भारतके एक सिरसे दूसरे सिरे तक बज रहा था ? क्या तुम्हें इन बातोको मनन करते हुए भी यह प्रतीत नहीं होता कि तुम जिन महात्माओं और विज्ञवरोंकी