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का परिवर्तन करके इसका नाम 'कुंदकुंदश्रावकाचार' रख दिया है'-साथ ही उन्हें अपने भंडारोंके दूसरे ग्रंथोंको भी जाँचना चाहिए.
और जांचके लिए दूसरे विद्वानोंको देना चाहिए । केवल वे हस्तलिखित भंडारोंमें मौजूद है और उनके साथ दिगम्बराचार्योंका नाम __ लगा हुआ है, इतनेपरसे ही उन्हें दिगम्बर-ऋषि-प्रणीत न समझ लें।
उन्हें खूब समझ लेना चाहिए कि जैन समाजमें एक ऐसा युग भी आचुका है जिसमें कषायवश प्राचीन आचायोंकी कीर्तिको कलंकित: करनेका प्रयत्न किया गया है और अब उस कीर्तिको संरक्षित रखना. हमारा खास काम है । इत्यलं विशेषु । देववंद (सहारनपुर) ता० १७-२-१४, जुगलकिशोर मुख्तार ।
जैन-जीवनकी कठिनाइयाँ।
मेरा जन्म एक जैनकुलमें हुआ था, इस लिए बचपनमें मैं समझता था कि जिस तरह यूरोपियन, अमेरिकन, जापानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियाँ है उसी तरह जैन भी एक जाति है और उसमें मैंने जन्म लिया है। यद्यपि नव वर्पकी उमर तक मुझे इतना ज्ञान नहीं था कि मैं 'जैन' हूँ। परन्तु ज्यों ही मैं दश वर्षका हुआ त्यों ही एक जैन पंडितने मुझे नमोकार मंत्र, पंचमंगल, दो चार विनती आदि रटा दी और तबसे मैने यह कहना सीख लिया कि 'मैं एक जैन हूँ।' उस समय मैं यह नहीं जानता था कि जैन बननेमें कोई विशेष आनन्द या लाभ है। अर्थात् तब तक मेरे शरीरपर, मनपर और जीवनपर जैनका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था । मेरी यह दशा