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________________ १५२ (८) ग्रंथकार महाशय एक स्थानपर लिखते हैं कि-कपट करके भी यदि निःस्पृहत्व प्रगट किया जाय तो वह फलका देनेवाला होता है । यथा." नराणां कपटेनापि निःस्पृहत्वं फलप्रदम् ॥८-३९६ ( उत्तरार्ध) इस कथनसे कपट और वनावटका उपदेश पाया जाता है। इतना नीचा और गिरा हुआ उपदेश भगवत्कुदकुद और उनसे घटिया दर्जेके दिगम्बर मुनि तो क्या, उत्तम श्रावकोंका भी नहीं हो सकता। (९) दशवें उल्ासमें छह प्रकारके बाह्य तपके नाम इस प्रकार लिखे हैं: " रसत्यागस्तनुक्लेश औनादर्यमभोजनम् । लीनता वृत्तिसंक्षेपस्तपःषोढा वहिर्भवम् ॥ २५ ॥" अर्थात्-१ रसत्याग, २ कायक्लेश, ३ औनोदर्य, ४ अनशन, ५ लीनता और ६ वृत्तिसंक्षेप (वृत्तिपरिसंख्यान), ये छह बाह्य तपके भेद हैं। इन छहों भेदोंमें 'लीनता' नामका तप श्वेताम्बर जैनियोंमें ही मान्य है । श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रसारिने 'योगशास्त्र' में भी इन्हीं छहों भेदोंका वर्णन किया है । परन्तु दिगम्बर जैनियोंमें 'लीनता' के स्थानमें 'विविक्तशय्यासन, वर्णन किया है। जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रसे प्रगट है: "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ॥९-१९॥" __ इससे स्पष्ट है कि यह प्रथ श्वेताम्बर जैनियोंका है। दिगम्बर ऋषि भगवत्कुंदकुंदका बनाया हुआ नहीं है।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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