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१४९ और मूढ़ताकी बात ही कौनसी हुई, यह कुछ समझमें नहीं आता। यहाँपर पाठकोंके हृदयमें यह प्रश्न जरूर उत्पन्न होगा कि जब ऐसा है तब जिनदत्तसूरिने ही क्यों इस प्रकारका कथन किया है ? इसका उत्तर सिर्फ इतना ही हो सकता है कि इस बातको तो जिनदत्तसूरि ही जानें कि उन्होंने क्यों ऐसा वर्णन किया है। परन्तु ग्रंथके अंतमें दी हुई उनकी 'प्रशस्ति से इतना जरूर मालूम होता है कि उन्होंने यह ग्रंथ जावालि-नगराधिपति उदयसिंह राजाके मंत्री देवपालके पुत्र धनपालको खुश करनेके लिए बनाया था। यथाः. "तन्मनन्तोषपोषाय जिनार्दत्तसूरिभिः।
श्रीविवेकविलासाख्यो ग्रंथोऽयं निर्ममेऽनघः ॥९॥ शायद इस मंत्रीसुतकी प्रसन्नताके लिए ही जिनदत्तसूरिको ऐसा लिखना पड़ा हो । अन्यथा उन्होने खुद दसवें उल्लासके पद्य न० ३१ में धनादिकको अनित्य वर्णन किया है।
(२) इस ग्रंथके प्रथम उल्लासमें जिनप्रतिमा और मंदिरके निर्माणका वर्णन करते हुए लिखा है कि गर्भगृहके अर्धभागके भित्तिद्वारा पाँच भाग करके पहले भागमें यक्षादिक की; दूसरे भागमें सर्व देवियोंकी; तीसरे भागमें जिनेंद्र, सूर्य, कार्तिकेय और कृष्णकी; चौथे भागमें ब्रह्माकी और पाँचवें भागमें शिवलिंगकी प्रतिमायें स्थापन करनी चाहिये । यथाः
“प्रासादगर्भगेहार्दै भित्तित पंचधा कृते। ___ यक्षायाः प्रथमे भागे देव्यः सा द्वितीयक ॥ १४८॥
जिनाकस्कन्दकृष्णानां प्रतिमा स्युस्तृतीयके।
ब्रह्मा तु तुर्यभागे स्यालिंगमीशस्य पंचमे ॥ १४९ ॥" यह कथन कदापि भगवत्कुंदकुदका नहीं हो सकता। न जैनमतका ऐसा विधान है और न प्रवृत्ति ही इसके अनुकूल पाई जाती है । श्वेताम्बर जैनियोंके मंदिरों में भी यक्षादिकको छोड़कर महादेवके लिंगकी