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गया है। यह विलक्षणता इसी श्रावकाचारमें पाई जाती है । रही मगलाचरणके भाव और भाषाकी बात, वह भी उक्त आचार्यके किसी ग्रंथसे इस श्रावकाचारकी नहीं मिलती। विवेकविलासमें भी यही पद्य है; भेद सिर्फ इतना है कि उसमें 'जिनविधु , के स्थानमें 'सुरिवरं' लिखा है । जिनदत्तसूरिके गुरु 'जीवदेव , का नाम इस पद्यके चारों चरणोंके प्रथमाक्षरोंको मिलानेसे निकलता है । यथाःजीववत्प्रतिभा यस्य, वचो मधुरिमाचितम्।
जी+व+दे+व-जीवदेव । देह गेह श्रियस्त स्व, वन्दे सूरिवरं गुरुम् ॥ ३॥ बस, इतनी ही इस पद्यमें कारीगरी (रचनाचातुरी) रखी गई है।
और तौरपर इसमे कोई विशेष गौरवकी बात नहीं पाई जाती। विवेकविलासके भाषाकारने भी इस रचनाचातुरीको प्रगट किया है। इससे यह पद्य कुदकुदस्वामीका बनाया हुआ न होकर जीवदेवके शिष्य जिनदत्तसूरिका ही बनाया हुआ निश्चित होता है। अवश्य ही कुंदकुदश्रावकाचारमें 'सूरिवर' के स्थानमे 'जिनविधु'की बनावट की गई है। इस बनावटका निश्चय और भी अधिक दृढ होता है जब कि दोनो प्रथोंके, उद्धृत किए हुए, पद्य न. ९ को देखा जाता है। इस पद्यमे प्रथके नामका परिवर्तन हे-विवेकविलासके स्थानमें 'श्रावकाचार' बनाया गया है-वास्तवमें यदि देखा जाय तो यह प्रथ कदापि 'श्रावकाचार' नहीं हो सकता। श्रावककी ११ प्रतिमाओं और १२ व्रतोंका वर्णन तो दूर रहा, इस प्रथमें उनका नाम तक भी नहीं है। भगवत्कुदकुदने स्वय षट् पाहुड़के अतर्गत 'चरित्र पाहुड में ११ प्रतिमा