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जव देखते दूरसे आते मुझे,
किलकारियां मोदसे जो भरते॥ समुहायके धायके आयके पास
उठायके पंख, नहीं टरते। वही हाय, हुए असहाय अहो!
इस नीचके हाथसे हैं मरते।
गृहलक्ष्मी नहीं, जो जगाये रहा--
करती थी सदा सुख कल्पनाको। शिशु भी तो नहीं, जो उन्हींके लिए,
सहता इस दारुण वेदनाको । वह सामने ही परिवार पड़ा पडा
भोग रहा यम-यातनाको। अब मैं ही वृथा इस जीवनको रख,
कैसे सहूँगा विडम्बनाको ?
, (१४) यही सोचता था यों कपोत, वहाँ
चिड़ीमारने मार निशाना लिया। गिर लोट गया धरती पर पक्षी,
बहेलिएने मनमाना किया। पलमें कुलका कुल काल करालने,
, भूत-भविष्यमें भेज दिया। क्षणभंगुर जीवनकी गतिका । यह देखो, निदर्शन है बढ़िया।
(१५) हरएक मनुष्य फँसा जो ममत्त्वमे,
तत्त्व-महत्त्वको भूलता है।