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मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद ॥१॥
छंद कामिनीमोहन (२० मात्रा।) जाति जिनराज शिवराजहितहत हो। परमवैरागआनंद भरि देत हो॥ गर्भके पूर्व पटमास घनदेवने। नगर निरमाशि वाराणसी सेवने ॥२॥ गगनसों रतनकी धार बहु वरपहीं। कोड़ि अर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं ॥ तातके सदन गुनवदन रचना रची।मातुकी सर्गविधि करत सेवा सची ॥३॥ भयो जव जनम तब इंद्रआसन चल्यों। होय चक्रित तुरित अवधितै लखि भल्यो। सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी। चलन उमग्यो तबैं मानि धनि धनि घरी ॥४॥ सातविधि सैन गज वृषभ रथ वाज लै। गन्धरब निरतकारी सबै साज लै ॥ गलितमदगन्ड ऐरावती साजियो। लच्छजोजन सु तन वदन सत राजियो॥ ५॥ वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे। तासुमधि शतकपनबीस कमलिनी खरे ॥ कमलनी मध्य पनवीस फूले कमल । कमलप्रति कमलमह एकसौ आठदल ॥६॥ सर्वदल कोड़शतवीस परमान जू। तासुपर अपछरा नचहि जुतमान जू ॥ तततता तततता विततता ताथई । धृगतता धृगतता धृगततामें लई ॥७॥ धरत पग नन नन सनन नन गगनमें । नूपुरे झनन नन झनन नन पगनमे । केइ तित बजत बाजे मधुर पगनमे ॥ ८॥