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सो लै समरशूल कारन, जजों चरन अति प्रीत लगाय॥हरि०॥४॥ I ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निवँपामि ॥
नव्य गव्य पकवान बनाऊं, सुरस देखि हगमन ललचाय ।
सो लै छुधारोगछयकारण, धरौं चरणढिग मनहरषाय ॥ हरिः॥५॥ ___ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामि ॥ रतनजड़ित अथवा घृतपूरित, वा कपूरमय जोति जगाय। दीप धरों तुम चरननआगें, जातें केवलज्ञान लहाय ॥ हरि० ॥६॥ ___ ॐ ही श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामि ॥ अगर तगर कृष्णागर चंदन, चूरि अगिनिमें देत जराय । अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम घूम यह तासु उड़ाय ॥हरि० ॥७॥
ॐ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि ॥ श्रीफल मातुलिंग वर दाडिम, आम निंबु फल प्रासुकलाय ।'
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