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छंद लक्ष्मीधरा। विव सिंहासनोंप जहाँ सोहहीं। इंद्रनागेन्द्र केते मन मोहहीं।
वापिका वारिसों जन सोहै भरीं। जासमें न्हात ही पाप जावै टरी॥७॥ तास आगें भरी खातिका वारसों। हंस सूआदि पंखी रमैं प्यारसों।
पुष्पकी वाटिका वागवृच्छे जहां । फूल और श्रीफल सर्वही हैं तहां ॥ ८॥ कोट सौवर्णका तास आगे खड़ा । चारदजचौओर रत्नों जड़ा॥
चार उद्यान चारोंदिशामें गना । है धुजापंक्ति औ नाटशाला बना ।॥६॥ तासु आगें त्रितीकोट रूपामयी । तूप नौ जास चारों दिशामें ठयी ॥
धाम सिद्धांतधारीनके हैं जहां । औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठ तहां ॥ १०॥ तास आगें रची गंधक्कूटी महां । तीन है कट्टिनी सारशोभा लहा॥
एक तौ निधै ही धरी ख्यात हैं । भव्यप्रानी तहां लौं सर्व जात हैं ॥११॥ दूसरी पीठप चक्रधारी गमै । तीसरे प्रातिहायें लशै भागमें ॥
तास वेदिका चार थंभानकी। है बनी सर्वकल्यानके खानकी ॥१२॥ तास है सुसिंघासनं भासनं । जासपै पम प्राफुल्ल है आसनं ॥
तासुपै अंतरीक्ष विराजै सही। तीनछत्रे फिरें शीसरन यही ॥१३॥
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