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पञ्चकल्याणक।
छंद हरिपद। शुकलछट वयशाखविषै तजि, आये श्रीजिनदेव ।
सिद्धारथमाताके उरमें, करै सची शुचि सेव ॥ रतनवृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेकप्रकार ।
ऐसे गुननिधिकों मैं पूजौं, ध्यावों वारंबार ॥१॥ ॐ ही वैशाखशुक्लषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय अर्धं ॥ १ ॥ माघशुकलतिथि द्वादशिके दिन, तीनलोकहितकार।
अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जगअवतार ॥ एक महूरत नरकमांहि हू, पायो सब जिय चैन।
कनकबरन कपि चिह्वधरनपद, जजों तुमैं दिनरैन ॥ २॥ ॐ हीं माघशुक्लद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अर्घ ॥२॥
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