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जयमाला। दोहा-अष्ट दुष्टको नष्ट करि इष्टमिष्ट निज पाय । शिष्ट धर्मभाख्यो हमें पुष्ट करो जिनराय ॥१॥
छंद पद्धड़ी १६ मात्रा। __ जय अजित देव तुअ गुन अपार । पै कह कछुक लघु बुद्धि धार ॥ दशजनमतअतिशय बलअनंत । शुभलच्छन मधुरवचन भनंत ॥२॥ संहनन प्रथम मलरहित देह । तनसौरभ शोणितस्वेत जेह ॥ वपु स्वेदबिना महरूपधार। सम चतुर धरें संठान चार ॥ ३॥ दश केवल गमनकाशदेव । सुरभिच्छ रहै योजन सतेव ॥ उपसर्गरहित जिनतन सु होय । सय जीव रहितवाधासु जोय ॥ ४॥ मुखचारि सरवविद्याअधीश । कवलाअहार बर्जित गरीश ॥ छायाविनु नख कच बढ़े नाहि । उन्मेष टमक नहिं भ्रुकुटि माहिं ॥५॥ सुरकृत दशचार करों बखान । तब जीवमित्रता भावजान ॥ कंटकविन दर्पणवत सुभूम । सब धान वृच्छ फल रहे झूम ॥६॥ पटरितुके फूल फले निहार। दिशि निर्मल जिय आनंदधार ॥ जहँ शीतल मंद सुगंध वाय । पदपंकजतल पंकज रचाय ॥७॥ मलरहित गगन सुर जय उचार । परपा गंधोदक होत सारn वर धर्मचक्र आगे चलाय । वसुमंगलजुत यह सुर रचाय ॥८॥