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पदान्जसेव, पर्मशमदाय पाय आय शर्न आपुरी ॥१॥
ॐ हीं श्रीअजितनाथ जिन अत्रावतरावतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ उ: । अत्र मम सन्नि हितो भव भव वषट् ॥१॥
अष्टक।
. छंद त्रिभंगी अनुप्रासक। गंगाहृदपानी निर्मल आनी, शौरभसानी सीतानी। तसु धारत धारा तृषानिवारा, शांतागारा सुखदानी॥ श्रीअजितजिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं । मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजों ख्याता जग्गेशं ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामि ॥ शुचि चंदन बावन तापमिटावन, सौरभ पावन घसि ल्यायो। तुन भवतपभंजनही शिवरंजन, पूजारंजनमैं आयो ॥ श्री० ॥२॥
ॐ ह्रीं श्रीअजितजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं नि० ॥