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ॐ ह्री श्रीआदिनाथ जिन अत्र अवतर अवतर। संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ । | अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
अष्टक । हिमवनोद्भव वारि सुधारिक। जजत यों गुनबोध उचारिक ॥ परमभाव सुखोदधि दीजिए । जन्ममृत्युजरा छय कीजिये ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीऋपभदेवजिनेन्द्रभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निव॑पामीति स्वाहा ॥ मलयचंदन दाहनिकंदनं । घसि उभै करमें करि बंदनं ॥ जजत हों प्रशमाश्रम दीजिये। तपततापत्रिधा क्षय कीजिये ॥२॥
ॐ हीं श्रीवृपभदेवजिनेन्द्र भ्यो भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामि ॥ अमल तंदुल खंडविवर्जितं । सित निशेषहिमामियतर्जितं ॥ जजत हों तसु पुंज धरायजी। अखय संपति यो जिनरायजी ॥३॥
ॐ ह्रीं श्रीवृपभजिनेन्द्रभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामि ॥
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