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भोगोपभोग-मर्यादा
- भगवान् महावीर धर्म तीर्थ कर थे । उन्होंने ऐसे धर्मतीर्थ की प्ररूपणा की है जो प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक युग के लिए समान रूप से हितकारी है। अढाई हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म के सिद्धांतों के मर्म पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता हैं, मानो इसी युग को लक्ष्य करके उन्होंने इन सिद्धान्तों का उपदेश किया है। उनके सिद्धान्त बहुत गंभीर और व्यापक हैं तथापि भगवान ने श्रुतधर्म और चारित्र धर्म की सीमा में सभी का समावेश कर दिया है । ... श्रुत धर्म का सम्बन्ध विचार के साथ और चरित्र धर्म का सम्बन्ध प्राचार के साथ है । आचार का उद्गम विचार है। विचार को बीज मान लिया जाय तो आचार उससे फूटने वाला अंकुर, पौधा, वृक्ष प्रादि सभी कुछ है । पहले विचार का निर्माण होता है फिर आचार उत्पन्न होता है । हो सकता है कि कभी विचार आचार के रूप में परणित न हो । बहुत बार ऐसा होता भी है। मगर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि विचार आचार का कारण नहीं है । ऐसे अवसर पर यही मानना होगा कि विचार में शिथिलता है, दृढ़ता नहीं आई है। उसे समुचित पोषरण-सामग्री नहीं मिली है।
.. विचार और प्राचार जीवन के दो. पक्ष हैं । दोनों पक्ष यदि सशक्त होते हैं तो जीवन गतिशील बनता है और ऊंची उड़ान भरी जा सकती है। दोनों में से एक के अभाव में जीवन प्रगतिशील नहीं बन सकता।
श्रतधर्म में ज्ञान-दर्शन का समावेश है और चारित्रधर्म में प्राचार के व्रत, नियम, उपनियम आदि सभी अंगों का समावेश हो जाता है। - दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि श्रुतधर्म मूल है तो व्रत-नियम श्रादि उसके फल हैं । श्रुतधर्म रूपी मूल अच्छा हो तो पत्र-पुष्प-फल आदि भी