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साधु एक स्थान पर स्थिर हो जाएगा तो दूर-दूर तक उसके ज्ञानप्रकाश की किरणें नहीं फैल सकेंगी। वह चलता-फिरता रहेगा तो जनसमाज को प्रकाश देगा, सत्प्रेरणा देगा। इस सामूहिक लाभ के साथ उसका निज का लाभ भी इसी में है कि वह स्थिर होकर एक जगह न रहे। एक जगह रहने से परिचय और सम्पर्क गाढ़ा होता है और उससे राग-द्वेष की वृत्तियां फलतीफूलती हैं । विचरणशील साधु इस अनिष्ट से सहज ही बच सकता है। साधु जहां भी जाएगा, प्रकाश की किरणें फैलाएगा। ज्ञान, दर्शन चारित्र का प्रचार भ्रमण बंद होने से नहीं हो सकेगा और जन-जन को उनके जीवन और प्रवचन
से जो प्रकाश मिलता हैं, वह नहीं मिल सकेगा। हाँ, साधु के लिए गमनागमन - का निषेध वहीं है जहां जाने से उसके ज्ञान एवं चारित्र में बाधा उपस्थित
होती हो। .. . .. .
आनन्द ने अपने गमनागमन की मर्यादा की थी। सम्यग्-दृष्टि विद्या : मान होने से उसमें ज्ञान का प्रकाश था, पर चारित्र का पूर्ण प्रकाश नहीं था वह क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करके अपनी कामनाओं को मर्यादित करने का प्रयत्न करने लगा। उसने ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्की दिशा में गमनागमन करने का प्रमाण बांध लिया।
जिस साधक ने दिशा परिमारण व्रत अंगीकार किया है, उसे चलतेचलते रास्ते में सन्देह उत्पन्न हो जाय कि कहीं वह निर्धारित परिमारण का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है ? फिर भी वह आगे चलता जाय तो उसका चलना व्रत का अतिचार है ! ऐसा करने से व्रत में मलीनता उत्पन्न होती है। अगर साधक जान-बूझ कर किसी कारण से परिमाण का उल्लंघन करता है तो अनाचार का सेवन करता है। . .
संदिग्ध अवस्था में व्रत का जो उल्लंघन हो जाता है, वह अतिचार की कोटि में आता है, जैसे रात्रि भोजन त्यागी अगर :सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के पश्चात् शंका की स्थिति में कार्य करे तो वह. अतिचार है।
स्वेच्छापूर्वक प्रतों को ग्रहण करने वाला साधक अतिचार से भी